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इस प्रकार प्रार्थना कर के वह देवालय से निकली और उसी वटवृक्ष के नीचे आई। उसने अपना उत्तरीय वस्त्र उतारा और वृक्ष की एक डाल से बाँध कर उसका पाश बनाया । फिर उच्च स्वर से बोली;
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'नभ में विचर रहे चन्द्र देव, नक्षत्र और तारागण तथा दिग्पाल ! मुझ दुर्भागिनी की आशा पूर्ण नहीं हो सकी । में हताश हो कर अपने जीवन का अन्त कर रही हूँ -- इस आशा के साथ कि उस पुनर्जन्म में सुमित्रानन्दन श्री लक्ष्मणजी की ही अर्द्धांगना बनूं ।”
तीर्थंकर चरित्र
श्री राम और सीताजी भरनींद में थे और लक्ष्मणजी जाग्रत हो कर चौकी कर रहे थे । लक्ष्मणजी ने देखा -- उस वृक्ष की ओर एक मानव छाया आ रही है। वे सावधान हो गए । उन्होंने सोचा - यह कौन है ? वनदेवी है, या वटवृक्ष की अधिष्ठात्री ? छाया, वृक्ष के नीचे आ कर रुकी और थोड़ी ही देर में उपरोक्त घोष सुनाई दिया । वे तत्काल दौड़े और डाल से झूलती हुई राजकुमारी का फन्दा काट कर उसे बचा लिया । राजकुमारी इस बाधा से भयभीत हो गई। किंतु जब उसे ज्ञात हुआ कि उसके रक्षक स्वयं उसके आराध्य ही हैं, तो हर्ष की सीमा नही रही। दोनों श्री राम के पास आये। निद्रा - त्याग के बाद लक्ष्मण ने, राजकुमारी वनमाला का परिचय दे कर पूरा वृत्तांत सुना दिया । वनमाला ने लज्जा से मुँह ढक कर राम और सीताजी के चरणों में नमस्कार किया और पास ही बैठ गई ।
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उधर वनमाला को शयन कक्ष में नहीं देख कर दासियाँ चिल्लाई । महारानी रोने लगी । राजा, अनुचरगण युक्त खोज करने निकल गए । पदचिन्हों के सहारे वटवृक्ष तक आए और पुत्री को अपरिचित पुरुषों के पास बैठी देख कर राजा गर्जा;
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'पकड़ों इन चोरों को । ये राजकुमारी का अपहरण कर लाये हैं ।”
सैनिक शस्त्र ले कर झपटे । लक्ष्मणजी ने धनुष उठा कर टंकार किया, तो सभी सैनिकों की छाती बैठ गई । कुछ वहीं गिर पड़े और कुछ भाग खड़े हुए। महीधर नरेश ही अकेले खड़े रहे । उन्हें विश्वास हो गया कि यह पराक्रमी वीर लक्ष्मणजी ही हैं । वे प्रसन्नता पूर्वक आगे बढ़ते हुए बोले;
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'अहोभाग्य ! स्बागत है वीर ! मैंने आपको पहिचान लिया है । मेरी पुत्री के भाग्योदय से ही आपका शुभागमन हुआ है ।' श्री रामभद्रजी के निकट आ कर उन्होंने प्रणाम किया और बोले ; -
" महानुभाव ! हमारी चिर अभिलाषा आज पूरी हुई। मेरे असीम पुण्य का उदय
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