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वनमाला का मिलन
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__ वर्षाऋतु व्यतीत होने पर रामभद्रजी ने आगे बढ़ने का विचार किया। वे प्रस्थान की तय्यारी करने लगे, तब गोकर्ग यक्ष ने विनयपूर्वक निवेदन किया;--
“यहाँ के निवास के समय व्यवस्था करने में मेरी ओर से कोई त्रुटि रह गई हो, या अविनय हुआ हो, तो क्षमा कीजिएगा।" इतना कह कर उसने अपना स्वयंप्रभ नाम का एक हार श्री राम को अर्पण किया। लक्ष्मणजी को रत्नमय दिव्य कुंडल जोड़ और सीताजी को चूड़ामणि तथा इच्छानुसार बजने वाली वीणा भेंट की । रामभद्रजी ने यक्ष का सम्मान किया और उस नगरी को छोड़ कर तीनों प्रवासी चल दिये । यक्ष-निर्मित वह मायापुरी भी विलीन हो गई।
वनमाला का मिलन
रामभद्रादि चलते-चलते और कितने ही वनों, पर्वतों और नदी-नालों का उल्लंघन करते विजयपुर नगर के निकट आये । संध्या का समय था । नगर के बाहर उद्यान में, दक्षिण-दिशा में एक विशाल वट वृक्ष था । उसकी शाखाएँ बहुत लम्बी थी। जटाएँ भूमि में घुस गई थी। वह सघन वृक्ष पथिकों के लिए आकर्षक एवं शांतिदायक था। उस वृक्ष को घर जैसी सुविधा वाला देख कर रामभद्रादि ने उसके नीचे विश्राम किया।
विजयपुर नरेश महीधरजी के 'वनमाला' नाम की एक पुत्री थी। बालवय में उसने लक्ष्मणजी की कीति-कथा सुन ली थी और उसी समय से वह लक्ष्मणजी के प्रति प्रीति वाली हो गई। युवावस्था में भी उसने लक्ष्मणजी को ही अपना पति माना और उन्हीं से मिलने के मनोरथ करती रही । पुत्री का मनोरथ महीधर नरेश जानता था और वह भी यह सम्बन्ध जोड़ना चाहता था। किन्तु जब दशरथजी की दीक्षा और राम-लक्ष्मण तथा सीता के वनगमन की बात सुनी, तो महीधर नरेश खेदित हुआ। उसने पूत्री के योग्य समझ कर चन्द्रनगर के राजकुमार सुरेन्द्ररूप के साथ सम्बन्ध निश्चित किया । राजकुमारी वनमाला ने जब अपने सम्बन्ध को बात सुनी, तो उसे गम्भीर आघात लगा। वह आत्मघात का निश्चय कर चुकी और अर्द्धरात्रि के वाद भवन से निकल गई। वह चली-चली उसी उद्यान में आई, जहाँ रामभद्रादि ठहरे थे । वहाँ के यक्षायतन में प्रवेश कर के उसने बलदेव की पूजा की और प्रार्थना करती हुई बोली;
___ "देव ! इस भव में मेरा मनोरथ पूर्ण नहीं हुआ। मैं हताश हो कर प्राण त्याग रही हूँ। किंतु अगले भव में तो मेरे पति श्री लक्ष्मणजी ही हों।"
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