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________________ तीर्थंकर चरित्र में आया। वह धुन ही धुन में आगे बढ़ा और दृष्टि लगा कर देखने लगा, तो उसे एक भव्य नगरी और उसके भवन शिखर आदि दिखाई देने लगे। वह चकित रह गया । उसने वहाँ कभी कोई बस्ती देखी ही नहीं थी । अचानक इस महावन में यह नगरी कैसे बस गई ? दूर जाती हुई एक सुन्दर महिला को देख कर वह उसके निकट गया और नगरी के विषय में प्रश्न किया- 'भद्रे ! यह क्या देव-माया है, इन्द्रजाल है, या गन्धर्वपुरी हैं ? अचानक यह नगर कैसे बन गया ?" १२२ महिला यक्षिणी थी । उसने कहा- "यह रामपुरी है । श्री राम-लक्ष्मण और सीता के लिए गोकर्ण यक्ष ने बनाई है । यहाँ दयानिधि श्री रामभद्रजी, दीनजनों को दान देते हैं । यहाँ जो याचक आते हैं, उनकी मनो-कामना वे पूरी करते हैं । यहाँ आ कर कोई खाली हाथ नहीं जाता ।" कपिल प्रसन्न हो गया । अपने सिर पर लदे हुए लकड़ियों के बोझ को एक ओर पटक कर उसने विनयपूर्वक महिला से पूछा ; - 'कल्याण- वेलि ! मुझे बता । में उन रामभद्रजी की सेवा में कैसे पहुँच सकता हूँ -- " यदि तू अपनी मिथ्या हठ और आग्रह छोड़ कर आर्हत् धर्म स्वीकार कर ले और फिर इस नगरी के पूर्वद्वार से प्रवेश कर के राजभवन में जावे, तो तेरा धर्म और अर्थ- दारिद्र्य दूर हो सकता है ।" कपिल की दुर्दशा का अन्त निकट ही था । यक्षिणी की सलाह उसे भाई । वह शीघ्र ही स्वस्थान आया और पूछता हुआ जैन साधुओं के निकट पहुँचा । धर्म-शिक्षा ग्रहण की । धर्म सुनते ही रुचि भी उत्पन्न हो गई । कपिल का भाग्योदय एवं भव्यता परिपक्व होने ही वाली थी । वह श्रावक हो गया । घर आ कर उसने पत्नी को भी धर्म समझा कर श्राविका बना ली। फिर दोनों रामपुरी में आये । राजभवन में प्रवेश करने के बाद जब कपिल की दृष्टि श्रीराम-लक्ष्मणादि पर पड़ी, तो पहिचान कर उलटे पाँव भागने लगा । उसे अपने दुर्व्यवहार का स्मरण हो आया था । उसे भागता देख कर लक्ष्मणजी ने रोकते हुए कहा- " Jain Education International "L 'द्विज ! निर्भय रह और जो इच्छा हो, वह मांग ले ।" कपिल का भय दूर हुआ । उसने श्री रामभद्रजी से विनयपूर्वक अपनी विपन्न दशा का परिचय दिया । उसकी पत्नी सीताजी से मिली । श्रीरामभद्रजी ने ब्राह्मण को इतना धन दिया कि वह सम्पन्न हो गया । उसकी विपन्नता नष्ट हो गई । कालान्तर में कपिल, संसार से विरक्त हो कर नन्दावतंस नामक आचार्य के समीप दीक्षित हो गया । ܙܕ ܕ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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