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कल्याणमाला या कल्याणमल्ल ?
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को प्रणाम नहीं करने के मेरे दृढ़ अभिग्रह को सदैव सहन करते रहें।'
श्रीरामचन्द्रजी के आदेश को सिंहोदर ने स्वीकार किया । उसके स्वीकार कर लेने पर लक्ष्मणजी ने उसे मुक्त कर दिया। सिहोदर और वज्रकर्ण आलिंगन पूर्वक मिले । सिंहोदर ने अपना आधा राज्य वज्रकर्ण को दे दिया, जिससे वह सामंत नहीं रह कर समान नरेश हो गया। अब प्रणाम करने का प्रश्न ही नहीं रहा ।
दशांगपुर नरेश वज्रकर्ण ने अवंतिकाधिपति सिंहोदर से, सनी श्रीधरा की कुण्डल जोड़ी माँग कर विद्युगम* को दी। वनकर्ण ने अपनी आठ व न्याएं और सिंहोदर ने अपने सामंतों सहित तीन सौ कन्याएँ लक्ष्मण को दी। लक्ष्मण ने उन कन्याओं को वनवास के समय तक पितृगृह में ही रखने का आग्रह करते हुए कहा--"जब तक हम प्रवास में रहें, तबतक के लिए इन स्त्री-रत्नों को अपने यहाँ ही रहने दें । जब अनुकूल समय आयगा, पाणि-ग्रहण कर लग्नविधि की जायगी।" वज्रकर्ण और सिहोदर अपने-अपने स्थान पर गए और रामचन्द्रादि रात्रिकाल वहीं व्यतीत कर किसी निर्जल प्रदेश की ओर आगे बढ़े।
कल्याणमाला या कल्याणमल्ल ?
चलते-चलते श्री सीतादेवी को प्यास लगी। उन्होंने जल पीने की इच्छा प्रकट की। श्रीरामभद्र और सीताजी को एक वृक्ष के नीचे बिठा कर, लक्ष्मण जल लेने के लिए चले । कुछ दूर आगे बढ़ने पर उन्हें मनोहर कमल-पुष्पों से सुशोभित एक सुन्दर सरोवर दिखाई दिया। उस सरोवर पर कुबेरपुर का राजा 'कल्याणमल्ल' क्रीड़ा करने आया था। कल्याणमल्ल की दृष्टि लक्ष्मण पर पड़ते ही मोहावेश बढ़ा । उसके नयनों में मादकता आ गई । बदन में काम व्याप्त हो कर विचलित करने लगा। उसके शरीर पर स्त्री के लक्षण प्रकट होने लगे । कल्याणमल्ल ने लक्ष्मण को आतिथ्य ग्रहण करने का निमन्त्रण दिया । पुरुषवेशी कल्याणमल्ल के मुख-कमल पर स्त्रीभाव के चिन्ह देख कर लक्ष्मण समझ गए कि यह है तो स्त्री, परन्तु कारण वश पुरुषवेश में रहती है। उन्होंने प्रकट रूप से कहा--"थोड़ी दूर पर मेरे ज्येष्ठ-भ्राता, भावज सहित बैठे हैं। मैं उन्हें छोड़ कर आपका निमन्त्रण स्वीकार नहीं कर सकता।" कल्याणमल्ल ने अपने चतुर प्रधान को रामभद्रजी के पास भेज कर आमन्त्रित किया। उनके लिए वहीं पटकुटी (तम्बू) तय्यार करवा कर ठहराया
* इसका वृत्तांत प.१.४ पर देखें ।
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