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तीर्थकर चरित्र
द्वेष, मान या लोभ के वश हो कर वह हठी बना है । उसके शुभाशय को समझ कर तुम्हें यह घेरा उठा लेना चाहिए।"
__ "महाराजाधिराज भरतजी का आदेश तुम्हें शिरोधार्य करना चाहिए । वे समुद्रांत सम्पूर्ण पृथ्वी के स्वामी हैं।"
___ लक्ष्मणजी के उपरोक्त वचन, सिंहोदर सहन नहीं कर सका । वह कोपायमान हो कर बोला;--
"कौन है ऐसे भरतजी, जो मुझे आदेश देते हैं ? नहीं मानता मैं उनके आदेश को । मैं स्वयं प्रभुसत्ता सम्पन्न शासक हूँ। मुझे आदेश देने वाला कोई नहीं हैं । मैं तुम्हारी बात को स्वीकार नहीं कर सकता।"
--" मूर्ख तू महाराजा भरतजी को नहीं पहिचानता और अपने ही घमंड में अकड़ रहा है ? ले, मैं तुझ-से भरतेश्वर का आदेश मनवाता हूँ। तैयार होजा युद्ध करने के लिए मेरे साथ-लक्ष्मणजी ने क्रोधावेश में अरुणनेत्र करते हुए कहा।
सिंहोदर युद्ध करने को तत्पर हो गया । लक्ष्मण तत्काल हाथी को बाँधने का खूटा उखाड़ कर उसी से शत्रुओं पर प्रहार करने लगे। उन्होंने एक छलांग लगायी और हाथी पर बैठे हुए सिंहोदर के पास पहुँचे तथा उसे दबोच लिया, फिर उसी के वस्त्र से उसे बाँध कर वश में कर लिया । लक्ष्मणजी के रणकोशल को देख कर सेना दंग रह गई । लक्ष्मणजी सिंहोदर को इस प्रकार खिंचते हुए रामचन्द्रजी के पास लाये, जिस प्रकार गाय को रस्सी से बांध कर लाया जाता है । सिंहोदर ने रामचन्द्रजी को प्रणाम किया और बोला
"हे रघुकुल-तिलक ! आप यहाँ आये हैं-यह मैं नहीं जानता था। कदाचित् आप मेरी परीक्षा लेने के लिये यहां पधारे हों। आप जैसे महाबलि मुझ जैसे पर अपनी शक्ति का प्रयोग करें, तब तो मेरा अस्तित्व ही नहीं रहे । स्वामिन् ! मेरा अपराध क्षमा करें और आज्ञा प्रदान करें कि मैं क्या करूं।"
"वज्रकर्ण के साथ समझौता करो"--रामचन्द्रजी ने कहा । सिंहोदर ने आज्ञा स्वीकार की। श्रीरामचन्द्रजी का सन्देश पा कर वज्रकर्ण वहाँ आया और विनय पूर्वक हाथ जोड़ कर बोला
"स्वामिन् ! आप भ० ऋषभदेव के कुल में उत्पन्न बलदेव और वासुदेव हैं-ऐसा मैंने सुना था। सद्भाग्य से आज आपके दर्शन हुए। आप अर्द-भरत के अधिपति हैं । मैं
और अन्य राजागण आपके किंकर हैं देव ! मुझ पर कृपा करें और मेरे स्वामी इन सिंहोदर नरेश को मुक्त कर दें, साथ ही इन्हें ऐसी शिक्षा प्रदान करें कि जिससे ये अन्य
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