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सिंहोदर का पराभव
के घेरा डाल कर बैठ गया । वज्रकर्ण ने सिंहोदर से कहलाया कि - " मेरे मन में आपके प्रति विपरीत भाव नहीं है । मैं केवल देव गुरु को ही वन्दनीय मानता हूँ । इसी दृष्टि से मने प्रतिज्ञा की है । यदि आपको मेरी प्रतिज्ञा उचित नहीं लगे, तो मैं राज्याधिकार छोड़ कर अन्यत्र चला जाने को भी तय्यार हूँ । अब आप ही उचित मार्ग निकालें ।”
सिहोदर इस निवेदन से भी प्रसन्न नहीं हुआ । वह धर्म के प्रति आदर वाला नहीं था। उसके घेरा डालते ही वहाँ की सारी व्यवस्था बिगड़ गई । प्रजा में भय, त्रास एवं अस्थिरता बढ़ी । सेना के दुर्व्यवहार से लोग अपने गाँव, घर, खेत, बाग, उद्यान और खले आदि छोड़ कर, दूर प्रदेश में भाग गए। इसीसे शून्यता छा रही है । मैं भी उसी प्रकार भागा हुआ हूँ। आग लग जाने से कुछ घर जल गए। मेरी पत्नी ने धनवानों के शून्य घरों में से चोरी करने के लिए मुझे भेजा सो मैं यहां आया हूँ । सद्भाग्य से आपके दर्शन हुए। " पथिक की बात सुन कर रामचन्द्रजी ने उसे स्वर्णसूत्र दे कर संतुष्ट किया और स्वयं दशांगपुर आये । राम की आज्ञा से लक्ष्मणजी दशांगपुर में प्रवेश कर के वज्रकर्ण के पास पहुँचे ।
वज्रकर्ण, श्रीलक्ष्मणजी को देख कर प्रभावित हुआ । उसने सोचा -- इस भव्य आकृति में अवश्य ही एक महान् आत्मा है । अभिवादन करते हुए वज्रकर्ण ने श्रीलक्ष्मणजी आतिथ्य ग्रहण करने की प्रार्थना की। लक्ष्मणजी ने कहा- 'मेरे पूज्य ज्येष्ठ भ्राता अपनी पत्नी के साथ बाहर उद्यान में हैं । उनके भोजन ग्रहण करने के बाद में ले सकता हूँ ।' बज्रकर्ण ने उत्तम भोज्य सामग्री ले कर अपने सेवकों को लक्ष्मणजी के साथ उद्यान में भेजा । भोजनोपरान्त रामचन्द्रजी की आज्ञा से लक्ष्मणजी, सिंहोदर के पास आये और कहने लगे; --
" सभी राजाओं को अपने सेवक समान समझने वाले महाराजाधिराज श्रीभरतजी ने तुम्हारे लिए आदेश दिया है कि तुम वज्रकर्ण के साथ अपना संघर्ष समाप्त कर के लौट जाओ ।"
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'श्रीभरत नरेश का अनुग्रह अपने भक्तिवान् सेवकों पर होता है अभिमानी एवं अविनम्र सेवक पर अनुग्रह नहीं करते। यह वज्रकगं मेरा सामंत होते हुए भी मेरे सामने नहीं झुकता, तब मैं इसे कैसे छोड़ दूं " -- सिंहोदर ने कारण बताया ।
'वज्रकर्ण तुम्हारे प्रति अविनयी नहीं है । वह धर्म-नियम का पालक है । उसकी प्रतिज्ञा अर्हन्त देव और निग्रंथ गुरु को ही प्रणाम करने की है । इनके अतिरिक्तं वह किसी को प्रणाम नहीं करता । यह इसकी धर्मदृढ़ता है, उद्दंडता या अविनय नहीं, न
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