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तीर्थंकर चरित्र
राज्य कर रहा है । उसका नाम वज्रकर्ण है । एक बार वज्रकर्ण वन आखेट के लिए गया और एक गर्भिणी हरिणी को मारा । तत्काल उसकी दृष्टि थोड़ी दूर पर ध्यानस्थ रहे हुए मुनि श्री प्रीतिधरजी पर पड़ी। वह आकर्षित हो कर मुनि के पास पहुँचा । मुनिराज का ध्यान पूर्ण हुआ । राजा ने मुनिवर का परिचय पूछा। मुनिराज ने उसे अपना -- अपनी साधना का परिचय दे कर धर्मोपदेश दिया। शिकारी का बुद्धिविकार मिटा और वह उपासक हो गया । भावोल्लास में उसने अरिहंत देव, निग्रंथ गुरु के अतिरिक्त दूसरे के आगे नहीं झुकने की दृढ़ प्रतिज्ञा ले ली। वह सिंहोदर नरेश ( अपने स्वामी) से भी बच कर रहने लगा, जिससे साक्षात्कार का प्रसंग ही उपस्थित नहीं हो । किसी विद्वेषी ने सिंहसेन से चुगली कर के इस रहस्य को खोल दिया । सिंहोदर क्रुद्ध हो गया । वज्रकर्ण को दण्डित कर दशांगपुर हस्तगत करने की उसने योजना बनाई । उसने वज्रकर्ण पर चढ़ाई करने की आज्ञा दे दी । रात को वह सोया, किन्तु इन्हीं विचारों में मग्न हो जाने से उसे नींद नहीं आ रही थी। रानी ने नींद नहीं आने का कारण पूछा। राजा ने वज्रकर्ण की उद्दंडता की बात कही ।
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एक मनुष्य ने वज्रकर्ण को सूचना दी- 'सिंहोदर आप पर चढ़ाई कर के आने ही वाला है । सावधान हो जाइए।” राजा ने पूछा - "तुम्हें कैसे मालूम हुआ ?” उसने अपना वृत्तान्त सुनाया;
कुन्दनपुर समुद्रसंगम नामक व्यापारी श्रावक का विद्यगम नाम का पुत्र हूँ। मैं व्यापारार्थ उज्जयिनी गया था। वहां की अनिन्यसुन्दरी वारांगना कामलता पर मैं मुग्ध हो गया । उसके मोह में फँस कर मैंने अपना सारा धन लूटा दिया। कामलता ने मुझसे महारानी के कानों की कुण्डल-जोड़ माँगी। मैं चुरा कर लाने के लिए राजभवन में गया । राजा को नींद नहीं आ रही थी । रानी द्वारा कारण पूछने पर उसने आपके नहीं झुकने और चढ़ाई कर के जाने की बात बताई । वह बात में वहाँ छुपा हुआ सुन रहा था आपको साधर्मी जान कर सावधान करने की भावना से मैं आपको सूचना देने आया हूँ ।" वज्रकर्ण सावधान हो गया । उसने धान्य, घास, पानी आदि आवश्यक वस्तुओं का संग्रह करके दुर्ग के द्वार बंद करवा दिये। सिंहोदर सेना ले कर आया और दशांगपुर
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• ग्रंथकार कहते हैं कि उसकी अंगूठी में मुनिसुव्रत जिनेश्वर की प्रतिमा थी और वह सिंहसेन को नमस्कार करते समय मरिहंत को स्मरण कर मुद्रिका युक्त हाथ सिर पर लगाता था । इस प्रकार वह अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह करता था ।
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