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________________ ११२ तीर्थंकर चरित्र " हें वत्स ! हे वत्स ! करती हुई रामचन्द्रजी के पास पहुँची । रामचन्द्रजी लक्ष्मणजी और सीताजी ने उन्हें प्रणाम किया। कैकयी उनका मस्तक चूमती हुई गद्गद स्वर से शुभाशीष देने लगी । भरत ने रामचन्द्र के चरणों में प्रणाम किया और भावावेश में मूच्छित हो गया। रामचन्द्रजी ने भरतजी को उठाया, छाती से लगाया, समझाया और सावधान किया । भरतजी भाव-विभोर हो कर कहने लगे ; -- " बन्धुवर ! आप मुझे अविनीत, द्रोही एवं विरोधी के समान छोड़ कर वन में आये । मैने आपका क्या अपराध किया था ? माता की भूल का दण्ड मुझे क्यों दिया-- आपने ? क्या मैं राज्यार्थि हूँ ? मैने तो पिता श्री के साथ प्रव्रजित होने की अपनी इच्छा पहले ही स्पष्ट बतला दी थी ? अब आप अयोध्या में पधार कर राज्यभार सम्भालो । बन्धुवर लक्ष्मणजी आपके मन्त्री हों, मैं प्रतिहारी और भाई शत्रुघ्न आप पर छत्र लिए रहे । यदि आप मेरी यह प्रार्थना स्वीकार नही करें, तो मुझे भी अपने साथ रख लें । मैं अब आपका साथ नहीं छोड़ सकता ।" कैकयी ने कहा--" वत्स ! अपने छोटे भाई की यह याचना पूर्ण करो। तुम तो सदैव भ्रातृ-वत्सल रहे हो । तुम्हारे पिताजी और यह छोटाभाई सर्वथा निर्दोष हैं । दोष एक मात्र मेरा ही है । स्त्री-सुलभ तुच्छ बुद्धि - कुबुद्धि के कारण मुझ से यह भूल हुई है । मेरी दुर्बुद्धि ने ही यह दुःखद स्थिति उत्पन्न की है । मैं ही तुम्हारे, पति के, अपनी स्नेहमयी बहिनों के और समस्त परिवार तथा राज्य के दुःख, शोक एवं संताप की कारण बनी हूँ । मुझे क्षमा कर दो -- पुत्र ! तुम मेरे भी पुत्र हो । क्या मुझे क्षमा नहीं करोगे ? मेरी इतनी-सी याचना स्वीकार नहीं करोगे ?" कैकयी की बाणी अवरुद्ध हो गई । उसकी आँखों से आँसू झर रहे थे । " रामचन्द्रजी ने कहा-'माता ! मैं महाराज दशरथजी का पुत्र हो कर, अपनी प्रतिज्ञा को भंग करूँ - - यह नितान्त अनुचित है । पिताश्री ने भरत को राज्य दिया और मैने उसमें अपनी पूर्ण सम्मति दे कर भरत को अयोध्यापति मान लिया । अब इससे पलटना मेरे लिए असम्भव है। माता ! तुम्हारा कोई दोष नहीं, तुम्हारी तो मुझ पर कृपा है, किंतु मेरी और पिताश्री की प्रतिज्ञा की अवगणना नहीं की जा सकती । आप तो हमें आशिष दीजिए ।" "" ' भाई ! तुम क्या पिताजी को और मुझे प्रतिज्ञा-भ्रष्ट करना चाहते हो ? जिसकी प्रतिज्ञा का पालन नहीं हो, उस मनुष्य का मूल्य ही क्या रहता है ? तुम्हें हमारे वचन का निर्वाह करने में सहायक बनना चाहिए । फिर मेरी आज्ञा भी यही है, उसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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