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राम से भरत की प्रार्थना
हृदय में आशा लिए और वनवासी पुत्रों और पुत्रवधू के लौटने की प्रतीक्षा करते हुए नरेश को निराशा का धक्का लगा। वे कुछ समय मौन रहे, फिर शक्ति संचय कर भरतजी से बोले--
"वत्स ! अब तुम राज्य-सत्ता ग्रहण करो और मेरे निष्क्रमण का प्रबन्ध करो।" __ " नहीं पूज्य ! मेरी भी यह प्रतिज्ञा है कि मैं अयोध्या का राज्य ग्रहण नहीं करूँगा । मैं सेवक रहूँगा, स्वामी नहीं। अब मैं स्वयं ज्येष्ठगण के समीप जा कर उन्हें लाऊँगा..........
“मैं भी जाऊँगी स्वामिन् ! यह विपत्ति मैने ही उत्पन्न की है । इसका निवारण मैं ही कर सकती हूँ"--कहते हुए कैकयी ने प्रवेश किया। उसने आगे कहा--"आपश्री ने तो अपने वचन के अनुसार भरत को राज्य दिया । किंतु भरत भी परम विनयी, नीतिवान् और निर्लोभी सिद्ध हुआ। मेरी दुर्मति ने भरत की भव्यता का विचार ही नहीं किया और सहसा अपनी तुच्छ माँग उपस्थित कर दी। मैं महा पापिनी हूँ-नाथ ! मेरी अधमता ने मेरी बहिनों को शोक-सागर में डाल दिया। सारे महालय को विषाद में ढक दिया। सारे राज्य को उदास कर दिया। मैं अपनी लगाई हुई आग में ही झुलस रही हूँ देव ! मुझे आज्ञा दीजिए। मैं भरत को साथ ले कर जाऊँगी और उन पुण्यात्माओं को मना कर लाऊँगी।"
दशरथजी को कैकयी का पश्चात्ताप युक्त स्वच्छ हृदय देख कर संतोष हुआ। उन्होंने कैकयी की प्रशंसा करते हुए कहा ;--
"भूल तो तुम से हुई ही प्रिये ! किंतु यह भवितव्यता ही थी। यदि मैं भी उस समय तुम्हें समझा कर इस आशंका से अवगत करता, भरत का अभिप्राय जान कर फिर अपन विचार करते, तो कदाचित् यह स्थिति नहीं आती । नहीं, नहीं, होनहार हो कर ही रहता है। तुम भरत के साथ अवश्य जाओ । सम्भव है तुम्हें सफलता मिल जाय।"
राम से भरत की प्रार्थना
__ कैकयी, भरत और मन्त्रीगण, रामचन्द्रजी के मार्ग पर शीघ्रतापूर्वक बढ़ चले और छह दिन में ही वे रामत्रय से जा मिले । उन्होंने दूर से राम-लक्ष्मण और सीताजी को एक वृक्ष के नीचे बैठे देखा। उन पर दृष्टि पड़ते ही कैकयी रय से नीचे उतरी और
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