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तीर्थकर चरित्र
उसमें आवर्त (चक्कर) पड़ रहे थे। नदी के किनारे रुक कर राम ने उन मन्त्रियों को समझाया और दृढ़ता पूर्वक कहा
“मैने आपके और पिताश्री के अनुरोध पर गंभीरता पूर्वक विचार किया। मैं इसी निश्चय पर पहुँचा हूँ कि मुझे अपने निर्णय पर अटल रहना चाहिए । अब मैं तत्काल लौटना प्रतिज्ञा-भंग के समान मानता हूँ। आप लौट जाइए।"
--"स्वामिन् ! आपने जिस उद्देश्य से प्रतिज्ञा ली थी, वह पूर्ण हो चुकी है। महाराज का वचन भी पूर्ण हो गया । अब वचन का पालन शेष रहा ही नहीं । भरतजी जब राज्य ग्रहण करना नहीं चाहते, तब आप राज्य को किस के भरोसे छोड़ रहे हैं ? अब कौनसी बाधा है--आप के लौटने में ?"
--"मैने प्रतिज्ञा करते समय यह नहीं सोचा था कि--'यदि भरत नहीं मानेगा, तो मैं लौट आऊँगा।' अतएव अब लौटना प्रतिज्ञा-भंग के समान मानता हूँ।"
मन्त्रियों और सामन्तों का प्रयत्न व्यर्थ हुआ । वे सर्वथा निराश हो कर अवाक् खड़े रहे । रामचन्द्रजी ने उन्हें बिदा करते हुए कहा
“पिताश्री से हम सब का प्रणाम एवं कुशल-क्षेम कहना। भाई भरत से कहना'तुम राज्य का भार वहन करके प्रसन्नता एवं तत्परता से संचालन करो। आप सभी का कर्तव्य है कि जिस प्रकार राज्य कार्य करते रहे, उसी प्रकार भरत नरेश को अपना स्वामी समझ कर करो और राज्य की उत्तम नीति-रीति और व्यवस्था से सुख-शांति एवं समृद्धि में वृद्धि करते रहो।"
रामचन्द्रजी की अंतिम आज्ञा सुन कर सारा शिष्टमंडल गद्गद हो गया। सभी की छाती भर गई । आँखों से आँसू झरने लगे। वे अनिच्छापूर्वक लौटने को विवश हुए । मन्त्रियों और सामन्तों के मुंह से सहसा ये शब्द निकल गए--"हमारा दुर्भाग्य है कि हमें श्रीरामचन्द्र जी को मनाने और सेवा करने का सौभाग्य नहीं मिला।"
कैकयी और भरत, राम को मनाने जाते हैं
रामादि उस करुण परिस्थिति से आगे बढ़े और उस दुस्तर नदी को पार कर किनारे पर पहुँचे । शिष्टमंडल, अश्रु-पूरित नयनों से देखता रहा और उनके दृष्टि से ओझल हो जाने पर लौट चला । अयोध्या पहुंच कर उन्होंने अपनी विफलता की कहानी नरेश को सुनाई।
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