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________________ राम को लौटाने का प्रयास एवं विषाद रहेगा, फिर भरत के राज्याभिषेक से पुनः परिवर्तन होगा और भरत और मैं अपने कौशल से पुनः अनुकूल परिस्थिति का निर्माण कर लेंगे । उसके मन में यह शंका ही नहीं उठी कि भरत ही मेरी सारी आशा-आकांक्षाओं को नष्ट कर देगा। जब उसका पुत्र भरत ही उसकी निन्दा करने लगा तो वह हताश हो गई और अपने आपको महापापिनी मानने लगी । उसे लगा कि - " मैं किसी को अपना मुख दिखाने योग्य भी नहीं रही। अब मेरा जीवित रहना उचित नहीं है। अपमानित जीवन से मरण उत्तम है ।" फिर विचारों में परिवर्तन हुआ - - मैं मर कर भी अपने कलंक को नहीं धो सकती, किंतु अपनी माँग को समाप्त कर, राम को लौटा सकती हूँ । राम आदि के वनवास का कारण मेरी माँग ही है । जब मैं अपनी माँग ही निरस्त कर दूंगी, तो राम के लंट आने में कोई बाधा ही नहीं रहेगी । इस प्रकार मैं अपनी बिगड़ी हुई स्थिति सुधार लूंगी ।" १०९ राम को लौटाने का प्रयास कैकयी अपने भवन कक्ष में इस प्रकार विचार कर रही थी। उधर दशरथ नरेश ने विचार किया कि - " मैंने अपने वचन का निर्वाह कर लिया । मैं भरत को राज्य देने को तत्पर हूँ । किंतु जब भरत ही राज्याधिकार नहीं चाहता, तो अब राज्यासन को रिवत एवं निर्नायक तो नहीं रखा जा सकता। मुझे आत्म-साधना में लगना है । इसलिए वनवासी राम को बुला कर राज्याभिषेक करना ही आवश्यक और एक मात्र मार्ग रह गया । उन्होंने मन्त्रियों और सामन्तों को बुलाया और उन्हें राम-लक्ष्मण को लौटा लाने के लिए भेजा । उनके साथ सन्देश भेजा - " भरत, राज्यभार स्वीकार नहीं करता और मैं अपना अंतिम जीवन सुधारने के लिए निवृत्त होना चाहता हूँ । राज्यधुरा को धारण करने वाला यहाँ कोई नहीं है और कैकयी की माँग भी पूर्ण हो चुकी है, इसलिए शीघ्र लोट आओ।" Jain Education International मन्त्रियों और सामन्तों का दल चल निकला। उन्होंने राम के पास पहुँच कर महाराज का सन्देश सुनाया। किंतु राम ने लौटना स्वीकार नहीं किया। उन्हें लगा कि इस प्रकार लौटने से अपने वचन का निर्वाह नहीं होकर भंग होता है । मन्त्रियों और सामन्तों का समझाना व्यर्थ रहा । राम आगे बढ़ने लगे । मन्त्रिगण आदि भी उनके पीछेपोछे जाने लगे। आगे चलते भयंकर अटवी आई, जिसमें व्याघ्र-सिंहादि हिंसक पशु रहते थे । मार्ग में एक गंभीरा नामक नदी थी। वह बहुत गंभीर, विशाल और प्रबल वेग वाली थी । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001916
Book TitleTirthankar Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1988
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size14 MB
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