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तीर्थंकर चरित्र
अंतःपुर और अयोध्या के नागरिक-सभी, राम, लक्ष्मण और सीता के पीछे-पीछे अयोध्या छोड़ कर निकल गए । अयोध्या नगरी जन-शून्य हो गई । राम, लक्ष्मण और सीता प्रसन्नता पूर्वक वन में चले जा रहे थे। उन्होंने पीछे से कोलाहल पूर्ण सम्बोधन सुना, तो ठिठक गए । उन्होंने पिता, माता आदि परिवार और नगरजनों को बड़ी कठिनाई से समझा कर लौटाया और आगे बढ़े। सभी लोग रानी कैकयी की निन्दा करते नगर में लौट आये । वनवासीत्रय को मार्ग में आये हुए गाँवों के निवासियों ने अपने यहाँ रह जाने का अत्यंत आग्रह किया, किंतु वे नहीं माने और आगे बढ़ते रहे।
भरत द्वारा कैकयी की भर्सना
श्रीरामचन्द्रजी, लक्ष्मणजी और सीताजी के वनवास के बाद भरतजी को राज्यासीन करने की विचारणा होने लगी। किंतु भरतजी ने स्वीकार नहीं किया और सर्वथा निषेध कर दिया। वे भ्रातृ-वियोग से खेदित एवं चिन्तित रहते हुए अपनी माता कैकयी पर आक्रोश करने लगे। उन्होंने माता से कहा---
" माँ ! आपको यह कुबुद्धि क्यों सुझी ? आपने कैसे मान लिया कि मैं ज्येष्ठभ्राता की उपेक्षा एवं अवहेलना कर के राजा हो जाऊँगा ? अरे, कम-से-कम मुझे तो पूछा होता ? हां, आपने सारे संसार के सामने अपने को हीन बना लिया । आपकी इस कुत्सित माँग ने पूज्य पिताश्री, माताओं, भ्रातागण, समस्त परिवार और राज्य को दुःख के गर्त में डाल दिया। मेरी शान्ति छिन ली। सदा प्रसन्न एवं प्रफुल्ल रहने वाला यह महालय, गंभीर, उदास, शोक, रुदन एवं निश्वासों से भरपूर हो गया। आपकी एक भूल ने सभी को अशान्त बना दिया। हा, देव ! मेरी माता से ऐसा अनर्थ क्यों हुआ ?"
कैकयी का चिन्तन
पुत्र की बातें कैकयी के हृदय में शूल के समान लगी । रामचन्द्रादि के प्रस्थान के समय उसका हृदय भी कोमल हो गया था और जन-निन्दा के समाचारों ने उसे अपने दुष्कृत्य का भान करा ही दिया था, फिर भी वह अपने मन को आश्वस्त कर रही थी। उसने सोचा था--'यह परिवर्तन, विषमता तो उत्पन्न करेगा ही। थोड़े दिनों तक उदासी चिन्ता
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