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नागरिक भी साथ चले
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विचार किया, तो उन्हें अपनी पूर्व-विचारणा निष्फल लगी । वे भ्रातृ-वियोग सहन नहीं कर सके और उन्हीं का अनुगमन करने का निश्चय करके धनुष तथा बाणों से भरा हुआ तूणीर ले कर चल दिये । वे पिता की आज्ञा लेने आये । लक्ष्मण को भी राम का अनुगमन करता देख कर दशरथजी के आहत हृदय पर फिर आघात लगा। उनकी वाणी अवरुद्ध रही । लक्ष्मण का तमतमाया मुंह देख कर वे उसका हृदय जान गए। उन्होंने हाय ऊँचा कर दिया । भरत तो जानते ही थे कि लक्ष्मण भी जाने वाले हैं। उन्हें वियोग में भी यह आश्वासन तो मिलता था कि लक्ष्मणजी के साथ रहने से रामचन्द्रजी और सीताजी का वनवास का समय निरापद रहेगा और उनके कष्टों में कमी होगी।
लक्ष्मणजी, माता सुमित्रा के पास आए, प्रणाम किया और अपना अभिप्राय व्यक्त किया। सुमित्रादेवी पुत्र का अभिप्राय जान कर आहत हरिनी की भांति निच्छ्वास छोड़ने लगी--
___ "वत्स ! तेरा निर्णय तो उचित है । राम और सीता के साथ तुम्हारा जाना आवश्वयक भी है। किंतु मेरा हृदय अशांति का घर बन जायगा । मैं भी ज्येष्ठा कौशल्या के समान तड़पती रहूँगी । अच्छा, जाओ पुत्र ! तुम्हारा प्रवास विविघ्न मंगलमय और शीघ्र ही पुनर्मिलन वाला हो।"
___ माता को प्रणाम कर लक्ष्मणजी महारानी कौशल्याजी के पास पहुँचे । उनसे भी आज्ञा माँगी । रो-रो कर थकी हुई राज-महिषी फिर रोने लगी । वे लक्ष्मणजी से भी प्रेम और वात्सल्य भाव रखती थी । अन्त में शुभाशीष के साथ आज्ञा प्राप्त कर शीघ्र ही भवन से निकल गए और वन में पहुँच कर राम और सीताजी के साथ हो लिए।
नागरिक भी साथ चले
लक्ष्मणजी को भी वन में जाते हुए देख कर नागरिकजन अधीर हो गए और उनके पीछे-पीछे जाने लगे । इधर दशरथजी ने सोचा--
" मेरे दोनों प्रिय एवं राज्य के लिए आधारभूत पुत्र वनवासी हो गए, तो मैं यहां रह कर क्या करूँगा ? विरहजन्य शोकाग्नि में जलते-तड़पते रहने से तो पुत्रों के साथ वन में जाना ही उत्तम है । वैसे में इन सब को छोड़ कर प्रव्रजित होना चाहता ही था। वे राज्यप्रासाद से निकल गए और उनके पोछे अन्तःपुर परिवार भी निकल गया । राजा,
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