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भरत का विरोध
तो यह परम प्रसन्नता की बात है । माता ने यह माँग रख कर तो मुझे बचा लिया है । राज्य के झंझटों में पड़ने से बचा कर मेरा उपकार ही किया है। मैं परम प्रसन्न हूँ -- देव ! आप चिन्ता छोड़ कर प्रसन्न हो जाइए । मैं स्वयं अपने भाई के राज्याभिषेक को अतिशीत्र देखना चाहता हूँ। मैं अभी महामन्त्री को भरत के राज्याभिषेक की तैयारी करने का आपका आदेश पहुँचाता हूँ ।"
भरत का विरोध
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" आप क्या कह रहे हैं; ज्येष्ठ ? आपके बोलने में कुछ अन्यथा हुआ है, या मेरे सुनने में " कहते हुए भरत ने प्रवेश किया ।
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' नहीं बन्धु ! सत्य ही कह रहा हूँ । तुम्हारा राज्याभिषेक का आयोजन होगा । तुम अवधेश बनोगे " - - रामचन्द्रजी ने भाई को छाती से लगाते हुए कहा ।
- "नहीं, नहीं, यह अनर्थ कदापि नहीं हो सकता । में तो पिताजी के साथ इस गृह, गृहवास और संसार का त्याग कर रहा हूँ और आप मेरे गले में राज्य की फांसी लगा रहे हैं । जिनका अधिकार हो, वे राज्य करें। अपना फन्दा दूसरों के गले में क्यों डाल रहे हैं -- आप ? क्या आप मेरे, प्रजा के, राज्य के और कुल परम्परा के साथ न्याय कर रहे हैं ?”
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'पूज्य ! ये ज्येष्ठ कैसी बातें कर रहे हैं ? ऐसी ठठोली तो आज तक मुझ से नहीं की -- इन्होंने । आज क्या हो गया है इन्हें -- पिता की ओर अभिमुख होते हुए भरतजी ने पूछा ।
--' राम सत्य कह रहे हैं, वत्स ! तुम्हारा राज्याभिषेक होने से ही में ऋणमुक्त हो सकता हूँ । तुम्हें मुझे उबारना ही होगा " - - दशरथजी ने उदासीनता पूर्ण स्वर में
कहा 1
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"यह तो महान् अनर्थ है, घोर अन्याय है । मैं इस अन्याय के भार को वहन करने योग्य नहीं हूँ । मुझे आत्म-साधना करनी है । में काम-भोग रूपी कीचड़ से निकल कर त्याग तप की सुरम्य वाटिका में रमण करना चाहता हूँ। में नहीं बँधूंगा इस पाश में, नहीं बँधूंगा, नहीं ! नहीं ! ! नहीं ! ! ! " -- कहते हुए भरत, रामचन्द्रजी के चरणों में गिर गए ।
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