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तीर्थंकर चरित्र
रामचन्द्र का अधिकार वे भरत को कैसे दें ? राम, राज्य करने के सर्वथा योग्य है और उत्तम शासक हो सकता है । यदि मैं उसे अधिकार से वंचित रख कर भरत को दे दूं, तो यह अन्याय होगा । मन्त्री और प्रजा क्या कहेगी ? महारानी और राम क्या सोचेंगे ? उनके हृदय पर कितना आघात लगेगा ? दशरथजी चिन्ता-सागर में डूब गए। पति को विचारमग्न देख कर कैकयो उठ कर अपने आवास में चली गई। इतने में रामचन्द्रजी और लक्ष्मणजी आ गए। उन्होंने पिता को प्रणाम किया। पिता को चिन्तामग्न देख कर रामचन्द्रजी बोले--
“देव ! मैं देखता हूँ कि आप कुछ चिन्तित हैं। क्या कारण है पूज्य ! मेरे रहते आप के श्रीमुख पर चिन्ता का क्या काम ? शीघ्र बताइए प्रभो!"
"मैं क्या कहूँ राम ! इस विरक्ति के समय मेरे सामने एक कठिन समस्या खड़ी हो गई । युद्ध में सहायता करने के कारण मेने तुम्हारी विमाता रानी कैकयी को कुछ माँगने का वचन दिया था। उस समय उसने कुछ नहीं मांगा और अपना वचन धरोहर के रूप में मेरे पास रहने दिया । अब वह मांग रही है । उसकी माँग ही मेरी चिन्ता का कारण बन गई।" दशरथजी ने उदास हो कर कहा--
___ "इसमें चिन्ता की कौनसी बात है पूज्य ! माता की मांग पूरी कर के ऋण-मुक्त होना तो आवश्यक ही है । क्या माँग है उनकी, जो आपके सामने समस्या बन गई है ? कृपया शीघ्र बताइए"--रामचन्द्रजी ने आतुरता से पूछा।
"वत्स ! उसकी माँग, मैं किस मुंह से तुम्हें सुनाऊँ ? मेरी जिव्हा सुनाने के लिए खुल नहीं रही । मैं कैसे कहूँ ?"--दशरथजी निःश्वास छोड़ कर दूसरी ओर देखने लगे।
"देव ! इस प्रकार मौन रह कर तो आप मुझे भी चिंता में डाल रहे हैं । आज मैं देख रहा हूँ कि आपश्री को मेरे प्रति विश्वास नहीं। इसलिए आप मुझे अपने मन का दुःख नहीं बताते । यह मेरे लिए दुर्भाग्यपूर्ण है।"
"नहीं, वत्स ! तुम अपना मन छोटा मत करो। मैं तुम्हारे प्रति पूर्ण विश्वस्त हूँ और तुम जैसे आदर्श पुत्र को पा कर मैं अपने को भाग्यशाली मानता हूँ। तुम सभी पुत्र योग्य हो । मेरी चिन्ता तुम्हें बताना ही पड़ेगी। लो, अब मैं वज्र का हृदय बना कर तुम्हें अपनी चिन्ता सुनाता हूँ;--
"पुत्र ! कैकयी की मांग है कि राज्याभिषेक तुम्हारा नहीं, भरत का हो । अब मैं इस मांग को पूरी कैसे करूं ? यह अन्यापूर्ण माँग ही मुझे खाये जा रही है, वत्स !"
"पूज्य ! इस जरासी बात में चिन्ता करने जैसा तो कुछ है ही नहीं। मेरे लिए
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