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कैकयी का वर माँगना
अपना पूर्वभव सुन कर रत्नमाली सम्भला और युद्ध का त्याग कर तेरे पुत्र सूर्यनन्दन को राज्य दे कर, श्री तिलकसुन्दर आचार्य के पास, तुम दोनों पिता पुत्र ने प्रव्रज्या ग्रहण कर ली । संयम का पालन कर दोनों मुनि, आयु पूर्ण कर महाशुक्र देवलोक में देव हुए। वहां से व्यव कर सूर्यजय का जीव तू दशरथ हुआ और रत्नमाली का जीव जनक हुआ । पुरोहित उपमन्यु भी सहस्रार से च्यव कर, जनक का छोटा भाई कनक हुआ । नन्दिवर्द्धन के भव में जो तेरा पिता नन्दिघोष था, वह ग्रैवेयक से च्यव कर मैं सत्यभूति हुआ हूँ ।"
कैकयी का वर माँगना
अपना पूर्वभव सुनकर दशरथजी को संसार की विचित्रता से वैराग्य हो गया । वे निवृत्त होने का मनोरथ करते हुए स्वस्थान आये और राम का राज्याभिषेक कर के निग्रंथ बनने की अपनी भावना रानियों और मन्त्रियों आदि के सामने व्यक्त की । यह सुन कर भरत ने कहा -- "देव ! मैं भी आपके साथ ही प्रव्रजित होना चाहता | आप मुझे अपने साथ ही रखें ।"
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भरत की बात कैकयी पर बिजली गिरने के समान आघात - जनक हुई । वह शीघ्र ही सँभली और सोचने लगी--" यदि पति और पुत्र दोनों चले गये। तो मैं तो निराधार हो जाऊँगी । फिर आर्यपुत्र के दिये हुए वे वचन मेरे किस काम आएँगे ।" उसने अपना कर्तव्य स्थिर करके पति से निवेदन किया;
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" स्वामी ! आपने मुझे जो वचन दिये थे, वे यदि आपकी स्मृति में हों, तो अब पूरे कर दीजिए ।"
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--"हां, हां, मुझे याद है । अच्छा हुआ तुमने याद कर के मांग लिया, अन्यथा तुम्हारा ऋण मेरे सिर पर रह जाता । बोलो, क्या माँगती हो ? मेरे संयम में बाधक बनने के अतिरिक्त तुम मुझ से जो चाहो, सो माँग सकती हो। यदि वह वस्तु मेरे पास होगी, तो अवश्य ही दे दूँगा ।"
"प्रभो ! यदि आपका गृहत्याग कर साधु होना निश्चित ही है, तो राज्याभिषेक भरत का हो। आपका उत्तराधिकारी वही बने और मेरा राजमाता बनने का मनोरथ पूरा हो ।"
कैकयी की माँग सुन कर दशरथजी को आघात लगा । वे विचार में पड़ गए ।
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