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१०.
तीर्थकर चरित्र
"सोनपुर नाम के नगर में 'भावन' नामक व्यापारी रहता था। उसकी 'दीपिका' नाम की पत्नी से कन्या का जन्म हुआ। उसका नाम 'उपास्तिका' था । वह साधु-साध्वियों से शत्रुता रखती थी । वहाँ से मर कर वह चिरकाल तक तिर्यञ्च आदि के दुःख सहन करती हुई परिभ्रमण करती रही । फिर वह बंगपुर के धन्य नाम के व्यापारी की सुन्दरी नामक पत्नी के गर्भ से पुत्रपने उत्पन्न हुई । उसका नाम 'वरुण' था । वह प्रकृति से ही उदार एवं दानशील था और साधु-साध्वियों को भक्तिपूर्वक दान दिया करता था। आयु पूर्ण कर के वह धातकीखण्ड के उत्तरकुरु क्षेत्र में युगलिक हुआ। फिर देव हुआ । उसके बाद पुष्कलावती विजय की पुष्कला नगरी के नन्दिघोष राजा का नन्दिवर्द्धन नामका पुत्र हआ। पिता ने पुत्र को राज्यभार दे कर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली और चारित्र पाल कर ग्रेवेयक में उत्पन्न हुआ और पुत्र अर्थात् तू श्रावक व्रत का पालन कर ब्रह्म देवलोक में उत्पन्न हुआ। वहाँ से च्यव कर वैताढ्य गिरि की उत्तरश्रेणी के शिशिपुर नगर के विद्याधरपति रत्नमाली की विद्युल्लता रानी के गर्भ से उत्पन्न हुआ। तेरा नाम ‘सूर्यजय' था । तू महापराक्रमी था। तेरा पिता रत्नमाली, वज्रनयन नाम के विद्याधर पर विजय प्राप्त करने के लिए सिंहपुर गया। वहाँ उसने उपवन सहित नगर को जला कर भस्म करने का घोरातिघोर दुष्कर्म करना प्रारंभ किया। तेरे पिता का पूर्वभव का पुरोहित, सहस्रार देवलोक में देव हुआ था। उसने जब देखा कि रन्नमाली भयंकर पाप कर रहा है, तो वह तत्काल उसके पास आया और समझाते हुए कहा--
___ " रत्नमाली ! ऐसा भयंकर कृत्य मत कर । तू अन्य जीवों की और अपनी आत्मा की भी दया कर । तू पूर्वजन्म में भूरिनन्दन राजा था। तेने मांसभक्षण का त्याग किया था, किंतु बाद में उपमन्यु पुरोहित के कहने से तेने प्रतिज्ञा तोड़ दी । कालान्तर में पुरोहित को अन्य पुरुष ने मार डाला । वह हाथीपने जन्मा । उस हाथी को भूरिनन्दन राजा ने पकड़ लिया । वह हाथी, युद्ध में मारा गया और उसी राजा की गान्धारी रानी के पेट से 'अरिसूदन' नामक पुत्र हुआ। वहाँ जाति-स्मरण ज्ञान प्राप्त होने पर उसने प्रव्रज्या ली। वहाँ से काल कर वह सहस्रार देवलोक में देव हुआ। वह देव में ही हूँ। भूरिनन्दन राजा मर कर बन में अजगर हुआ। वहाँ दावानल में जल कर दूसरी नरक का नैरियक हुआ । पूर्व के स्नेह से मैंने नरक में जा कर उसे प्रतिबोध दिया। वहाँ से निकल कर वह रत्नमाली राजा हुआ। अब तू इस महापाप से विरत हो जा । अन्यथा करोड़ों जीवों को भस्म कर के तू अपने लिये दुःख का महासमुद्र बना लेगा और करोड़ों भवों में भोगने पर भी नहीं छूटेगा।"
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