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स्वयंवर का आयोजन
कहा - " क्या पृथ्वी, वीर- विहीन हो गई ? इस सभा में ऐसा कोई भी योद्धा नहीं, जो इस दाँव को जीते ? युद्ध में वीरत्व दिखा कर, कायर लोगों को अस्त्रवल और संन्यबल नेमार कर जीतने वाले वे बीर अब नीचा मुँह कर के क्यों बैठे हैं ? यहाँ अपना वीरत्व
नहीं दिखाते ? "
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चन्द्रगति का यह वाक्प्रहार सीधा राम-लक्ष्मण पर ही था । लक्ष्मणजी इस व्यंग को सहन नहीं कर सके । वे तत्काल उठे और बोले ; --
'महानुभाव ! आप बड़े हैं । आपको हम बच्चों पर वाक् प्रहार नहीं करना चाहिए। हम अवश्य ही आपकी बात का आदर कर के इस कलंक को धो देंगे ।" इतना कह कर उन्होंने ज्येष्ठ-बन्धु से निवेदन किया; --' कृपया अब आप कष्ट कर के इस कलुष को धो दीजिए ।"
यह सुनते ही रामचन्द्रजी उठे और धनुष के निकट आये । रामचन्द्रजी को साहस करते हुए देख कर चन्द्रगति आदि नरेशों ने उनका उपहास किया और निष्फल और अपमानित लौटने के क्षण की प्रतिक्षा करने लगे । जनकजी का हृदय धड़कने लगा । उनके मन में शंका उत्पन्न हुई --' कहीं रामचन्द्र भी निष्फल रहे, तो क्या होगा ?"
रामचन्द्रजी के कर-स्पर्श से ही उस पर लिपटे हुए साँप पृथक् हो गए । उन्होंने वज्रावर्त धनुष को सहज में ही उठा लिया और उस वज्रमय धनुष को, नरम बाँस को नमाने के समान झुका कर प्रत्यंचा चढ़ा दी, तथा कान तक खिंच कर ऐसी ध्वनि निकाली कि जो विजयघोष के समान गूंज उठी । तत्काल ही सीता ने आगे बढ़ कर राम के गले में वरमाला पहना दी । चन्द्रगति और भामण्डल इस दृश्य को देख कर निराश हो गए। यह उनकी आशा एवं इच्छा के विपरीत हुआ । राम सफल होने के बाद, उनकी आज्ञा पा कर लक्ष्मण भी उठे । उन्होंने अरुणावर्त धनुष को सहज ही में चढ़ा दिया और उसकी टंकार से ऐसी भयंकर ध्वनि निकाली कि लोगों के कानों को सहन नहीं हो सकी । उपस्थित विद्याधरों और राजाओं ने अपनी अठारह कुमारिकाएँ लक्ष्मण को दी । चन्द्रगति, भामण्डल और अन्य निराश प्रत्याशी, उदासीनतापूर्वक नीचा मुँह किये हुए अपने स्थान पर चले गए ।
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जनक नरेश का सन्देश पा कर दशरथ नरेश मिथिला पहुँचे और राम के साथ सीता का लग्न बड़ी धूमधाम और उत्साहपूर्वक हुआ । जनकजी के भाई कनकजी ने अपनी पुत्री सुभद्रा को लक्ष्मणजी के साथ ब्याही | लग्नोत्सव पूर्ण होने पर दशरथ नरेश, पुत्रों और पुत्रवधुओं सहित अयोध्या आये और अयोध्या में विवाहोत्सव मनाया जाने लगा ।
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