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तीर्थंकर चरित्र
निरीक्षण कर के भामण्डल अत्यन्त आसक्त हुआ । सीता, राम को चाहती हुई भूमि पर दष्टि जमाए हई थी। इतने में जनक नरेश के मंत्री ने सभा को संबोधित करते हुए कहा;
"स्वयम्वर मण्डप के प्रत्याशी नरेशों और राजकुमारों ! यह आयोजन जनकराजदुलारी के लिए वर का चुनाव करने के लिए किया गया है । परन्तु यह स्वयंवर विशेष प्रकार का है । साधारण स्वयंवर में राजकुमारी की इच्छा प्रधान रहती है । वह अपनी इच्छानुसार वर चुन सकती है। किंतु इस आयोजन में वैसा नहीं है। इसमें किसी व्यक्ति की इच्छा को अवकाश नहीं, परंतु योग्यता को स्थान मिला है। मेरे स्व. मी, जनक, महाराज ने एक विशेष दाँव (शर्त) रखा है--इस चुनाव में । ये जो दो धनुष रखे हैं, इनमें से किसी भी एक धनुष को उठा कर प्रत्यंचा चढ़ाने वाला ही राजकुमारी के योग्य माना जायगा। अब आप अपने सामर्थ्य का विचार कर उचित समझें वैसा करें।"
मन्त्री की उद्घोषणा सुन कर प्रत्याशी विचार में पड़ गए । उन्हें इस मण्डप में दो ही वस्तुओं ने आकर्षित किया था--धनुषद्वय और राजकुमारी ने । अब उनकी दृष्टि राजकुमारी को छोड़ कर धनुष पर ही जम गई । वे धनुष मामूली बाँस या लकड़ी के नहीं थे । वे वज्रमय, अत्यंत दृढ़ और बहुत भारी थे । रत्न के समान ज्योतिर्मय थे । वे देव. रक्षित थे । उन पर साँप लिपटे थे। उन्हें देख कर ही कई नरेश निराश हो गए। उन्हें यह कार्य अपनी शक्ति के बाहर लगा। वे चुप ही रह गए । कुछ साहस करके उठे, धनुष को निकट से देखा, अपनी शक्ति तोली और लौट आये। कुछ ने हाथ लम्बा कर उठाने का प्रयत्न किया, किंतु उसे डिगा भी नहीं सके । उन्हें भी नीचा पुंह कर के लौटना पड़ा। दशरथनन्दन राम-लक्ष्मण बैठे हुए यह खेल देख रहे थे। कई प्रख्यात योद्धा और अनेक युद्धों में विजय प्राप्त किये हुए बलवान् नरेशों को निष्फल देख कर तो शेष प्रत्याशी उठे ही नहीं। भामण्डल का क्रम तो अंतिम था । निष्फल नरेशों और कुमारों को देख कर उसकी प्रसन्नता बढ़ रही थी। उसके मनमें दढ विश्वास था कि--राम-लक्ष्मण उठेंगे ही नहीं, यदि उठे भी तो इनकी दशा भी ऐसी ही होगी और बाद में में अपना कौशल दिखा
भी प्राप्त कर लंगा और महावीर पद की प्रतिष्ठा भी। वह अपने लिए पूर्णरूप से विश्वस्त था । उपस्थित दर्शकों में निराशा छा गई । दर्शकों में से यह विचार व्यक्त होने लगा कि--
"राजकुमारी को निराश लौटना पड़ेगा, अथवा जनक नरेश को अपना दाँव हटा लेना पड़ेगा।" बहुत विलंब होने पर भी जब कोई नहीं उठा, तो दर्शकों में भी वीरत्व के विरुद्ध स्वर निकलने लगे और चन्द्रगति ने तो वीरों को लक्ष्य कर व्यंग-बाण छोड़ते हुए
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