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स्वयंवर का आयोजन
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साथ सीता के लग्न हो जावेंगे । अन्यथा भामण्डल यह बाजी जीत कर सफल मनोरथ हो जायगा।"
जनकजी को विवश हो कर उपरोक्त बात स्वीकार करनी पड़ी। उन्हें धनुष के साथ मिथिला पहुँचा दिया गया और चन्द्रगति नरेश स्वयं पुत्र और परिवार सहित मिथिला पहँचे तथा नगर के बाहर डेरा डाला।
जनक नरेश ने इस घटना का वर्णन महारानी विदेहा से किया, तो वह बहुत निराश हुई और रुदन करती हुई बोली ;---
__ मेग भ ग्य अत्यन्त विपरीत है । इसने पहले तो मेरे पुत्र को जन्म लेते ही छिन लिया और अब इस प्रसन्नता के समय पुत्री को भी लूटना चाहता है। संसार में मातापिता की इच्छानुसार पुत्री के लिए वर होता है, किन्तु में इस अधिकार से वंचित हो कर दुसरों की इच्छा के मानने के लिए बाध्य की जा रही हूँ। यदि राम, धनुप नहीं चढ़ा सकेंगे और कोई दूसरा चढ़ा लेगा, तो अवश्य ही मेरी पुत्री को अनिष्ट वर की प्राप्ति होगी। हा, देव ! अब मैं क्या कहूँ।"
विदेहा के रुदन और निराशाजन्य उद्गार से द्रवित हो जनकजी ने कहा--
.. प्रिय ! निराश क्यों होती हो ? तुमने रामचन्द्र के बल को नहीं देखा । मैं तो अपनी आंखों से देख चुका हूँ और उसीका परिणाम वर्तमान स्थिति है। अन्यथा आज अपनी और इस राज्य की क्या दशा होतो ? दुदन्ति शत्रु-समूह को नष्ट-भ्रष्ट करने की शक्ति, सौधर्म-ईशान इन्द्रद्वय के समान इन दो बन्धुओं में ही है। तुम निराश मत बनो और उत्साह पूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करो।"
स्वयंवर का आयोजन
महारानी को समझा कर जनकजी, प्रातःकार्य से निवृत्त हुए और चारों ओर दुत भेज कर गजाओ और राजकुमारों को सीता के स्वयंवर में सम्मिलित होने के लिए बुलाया। एक भव्य स्वयंवर मण्डप बनाया गया। आगत राजाओं और राजकुमारों के बैठने के लिए आसन लगाये गए । एक स्थान पर दोनों धनुष रख दिये गए। उनकी अर्चना की गई। राजकुमारी सीता, लक्ष्मीदेवी के समान सर्वालंकारों से सुसज्जित हो कर, अपनी सखियों के साथ मण्डप में उपस्थित हुई और धनुष की अर्चना करके एक ओर खड़ी रही। सीता का साक्षात्
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