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दी । चपलगति आकाश मार्ग से रात्रि को मिथिला पहुँचा और जनक का अपहरण कर के रथनूपुर में ले आया । चन्द्रगति राजा ने जनकजी का सत्कार कर अपने पास बिठाया और कहा-
" मित्र ! क्षमा कीजिए । मैंने अपने स्वार्थवश आपको कष्ट दिया । मैं आपकी प्रिय पुत्री को अपनी पुत्रवधू बनाना चाहता हूँ । कृपया यह सम्बन्ध स्वीकार कीजिए ।' जनकजी अपने अपहरण का कारण समझ गए । किन्तु वे इस माँग को स्वीकार करने की स्थिति में नहीं थे। उन्होंने विवशता बताते हुए कहा
""
'महाशय ! में विवश हूँ । मैने सीता का वाग्दान कर दिया है । दशरथ नरेश के सुपुत्र रामचन्द्र के साथ उसका लग्न करना निश्चित हो चुका है। अब में इससे मुकर कंसे सकता हूँ ?'
"
चन्द्रगति उपरोक्त उत्तर सुनकर निराश हुआ। वह समझता था कि वाग्दान होने के बाद अकारण ही मुकरना प्रतिष्ठित जनों के लिए सम्भव नहीं है । फिर क्या किया जाय ? विचार करते उसे एक उपाय सूझा । उसने कहा ;
तीर्थंकर चरित्र
" महानुभाव ! मैने जिस प्रकार आपका अपहरण किया, उसी प्रकार राजदुलारी का अपहरण कर के उसके साथ अपने पुत्र का लग्न करने में भी समर्थ हूँ । किन्तु में तो अपन- दोनों में मधुर सम्बन्ध जोड़ कर स्नेह सर्जन करना चाहता हूँ । इसलिए में आपने याचना कर रहा हूँ | मैं आपकी विवशता समझता हूँ । यदि आप स्वीकार करें, तो एक उपाय है । इससे आपकी गुत्थी सुलझ सकती है ।"
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"
'बताइए, क्या उपाय है " -- जनकजी ने पूछा ।
" मेरे पास दुःसह तेजयुक्त 'वज्रावर्त' और 'वरुणावर्त' नाम के दो धनुष हैं : ये यक्ष- सेवित हैं । इन धनुषों की देव के समान पूजा करता हूँ। ये इतने दृढ़, भारी, तेजस्वी और प्रभाव युक्त हैं कि सामान्य योद्धा तो इन्हें देख कर ही सहम जाता है। विशेष बलवान् योद्धा इन्हें उठाने का प्रयत्न करता है, तो वह असफल होता है । इन्हें उठाने की शक्ति तो वासुदेव बलदेव जैसे महान् वीर पुरुष में ही होती है । आप दोनों धनुष ले जाइए और इस शर्त के साथ उद्घोषणा कीजिए कि-
" जो महाबाहु वीर, इनमें से किसी एक धनुष की प्रत्यंचा चढ़ा देगा, उसके साथ सीता का लग्न होगा ।"
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"
'यदि रामचन्द्र धनुष चढ़ा देगा, तो हम अपनी पराजय मान लेंगे और राम के
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