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भ० ऋषभदेवजी -- १८ पुत्रों को भगवान् का उपदेश और दीक्षा ८१
की अनुमति नहीं मिली, तो वह आयंबिल तप करने लगी । इससे उसका शरीर दुर्बल हो गया था । जब महाराज ने उसकी यह दशा देखी, तो उन्होंने उसके वैराग्य से प्रभावित हो कर दीक्षा लेने की आज्ञा प्रदान कर दी ।
भ• ऋषभदेवजी ग्रामानुग्राम विहार करते हुए अष्टापद पर्वत पर पधारे । राजafrat सुन्दरी के निष्क्रमण का समय आ गया । भरतेश्वर ने उन्हें भगवान् के समीप दीक्षा दिलाई।
१८ पुत्रों को भगवान् का उपदेश और दीक्षा
महाराजाधिराज भरतेश्वर ने छ: खण्ड साध लिया और राज्याभिषेक भी हो चुका । किन्तु उनके खुद के बन्धु ( जो पृथक्-पृथक् भूपति थे ) राज्याभिषेक के समय उपस्थित नहीं हुए और अपने को चक्रवर्ती के आज्ञाकारी नहीं माना। हजारों योजन दूर के दूसरे देश के राजा और देव तक आज्ञाकारी रहे और अपने ही छोटे भाई राजा, बिलकुल स्वतन्त्र रहे, तो वे पूर्णरूप से चक्रवर्ती सम्राट नहीं हो सकते। उनके चक्रवर्तीपन में न्यूनता रह जाती थी । अतएव उन्होंने अपने सभी बन्धु राजाओं के पास दूत भेज कर आज्ञा में रहने की स्वीकृति मँगवाई | राजदूतों से भरत नरेश का अभिप्राय जान कर वे सभी बोले-पिताश्री ने भरत को और हम सभी को पृथक्-पृथक् राज्य दे दिया है । भरत अपना राज्य सम्भालें और हम अपना राज्य सम्भालें । हम भरत की आज्ञा क्यों मानने लगे ? भरत ने हमें क्या दिया, जो वह हमसे अपनी आज्ञा मनवाना चाहता है ? यह उसका अन्याय है । अभी पिताश्री विद्यमान है । हम उनसे निवेदन करेंगे कि भरत सत्ता के मद और राज्य - तृष्णा के जोर से हमें दबाता है और अपने सेवक बनाना चाहता है ।" राजदूतों को रवाना करके वे भगवान् आदि जिनेश्वर की सेवा में पहुँचे । वन्दननमस्कार करने के बाद निवेदन किया
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'स्वामिन् ! आपने योग्यता के अनुसार भरत को और हम सभी को पृथक्-पृथक् राज्य दे कर स्वतन्त्र कर दिया था। हम सभी तो आपके दिये हुए राज्य में ही संतोष कर के चला रहे हैं, किंतु हमारे ज्येष्ठ-बन्धु भरत की तृष्णा बहुत बढ़ गई है। उसने अपने राज्य का बहुत ही लम्बा-चौड़ा विस्तार कर लिया और अब हमारे राज्य भी अपने अधिकार में करना चाहता है । उसने हमारे पास अपने दूत भेज कर यह मांग की है कि
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