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________________ ८२ तीर्थंकर चरित्र (( 'तुम या तो मेरी सेवा करो या राज्य छोड़ कर हट जाओ । इस प्रकार भरत हमारे साथ अन्याय एवं अत्याचार कर रहा है -- प्रभो ! " " नाथ ! सेवा वही करता है, जिसे सेव्य से कुछ पाने की आशा हो, अथवा भय हो । हमें न तो भरत से कुछ लेना है और न भय ही है। ऐसी दशा में युद्ध का ही मार्ग शेष रह जाता है । हम उनसे युद्ध करेंगे, यही हमारा निश्चय है । फिर भी कुछ करने के पूर्व श्रीचरणों में निवेदन करने के लिए उपस्थित हुए हैं । यदि कोई शान्ति का मार्ग हो, तो बतलाइये कृपालु ! जिससे रक्तपात का अवसर नहीं आवे ।" भगवंत ने फरमाया - " 'आयुष्यमानों ! मनुष्य में वीरत्व का होना आवश्यक है । जिनके वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम होता है, वही वीरत्व रख सकता है । परन्तु शक्ति का सदुपयोग ही आत्मा को परम सुखी बनाता है । धन, लक्ष्मी, राज्य, स्त्री, कुटुम्ब, परिवार और बल तथा अधिकार के लिए वीरत्व का किया हुआ उपयोग, आत्मा को दुःखी बना देता है और इन सभी प्रकार की बासनाओं और दुःखों के मूल, लोभ तथा उसके साथी क्रोध, मान और माया रूपी दुर्वृति को नष्ट करने में लगाया हुआ वीरत्व, आत्मा को वह अनन्त आत्म - ऋद्धि देता है कि उसके आगे भरत की नाशवान् ऋद्धि किस गिनती में है ?" 46 'भव्यों ! ऐसी ऋद्धि तो क्या, इससे भी अधिक देव ऋद्धि तुमने पूर्वभवों में प्राप्त कर लो और पल्योपम सागरोपम तक उसका उपभोग किया। उस देव ऋद्धि के सामने मनुष्यों की ऋद्धि किस हिसाब में है ? इस ऋद्धि में रचा-पचा मनुष्य नीच गति में जा कर असंख्य काल तक दुःख भोगता रहता है । इसलिए मैने इस पौद्गलिक ऋद्धि का त्याग कर के मोक्षमार्ग अपनाया । इसलिए मेरा तो यही कहना है कि तुम इस झंझट को छोड़ो और आत्मधनी बन जाओ ।" " भरत को जो ऋद्धि प्राप्त हुई, वह अकारण नहीं है । उसके पूर्व-भव के प्रबल पुण्य का उदय है | वह इस अवसर्पिणी काल का प्रथम चक्रवर्ती है । इस प्रकार की ऋद्धि भी अपने समय के एक ही पुरुष को प्राप्त होती है । वह चक्रवर्ती होगा । किन्तु तुम्हारे त्याग के प्रभाव से वह तुम्हारे चरणों में झुकेगा । तुम्हें सेवक बनाने वाला महाबली भरत तुम्हारी वन्दना करेगा । महत्ता त्याग की है, भोग की नहीं । यदि तुम्हें जन्म, जरा, रोग, शोक, संयोग, वियोग और मृत्यु से बचना है और परम आत्मानन्द प्राप्त करना है, तो अपने भीतर रहे हुए राग-द्वेष, विषय- कषाय एवं पौद्गलिक दृष्टि को त्याग कर द्रव्य-भाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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