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भ० ऋषभदेवजी- चारित्र रत्न
(धन-धान्यादि) मनुष्य के वाह्य प्राण के समान है। इसका हरण करने वाला, प्राणों का हरण करता है-ऐसा समझना चाहिए ।
ब्रह्मचर्य-दिव्य (वैक्रिय) और औदारिक शरीर से अब्रह्मचर्य के सेवन का मन, वचन और काया से, करन, करावन और अनुमोदन का त्याग करना--' ब्रह्मचर्य व्रत' है। इसके अठारह भेद होते हैं।
अपरिग्रह-समस्त पदार्थों पर से मोह (मूर्छा) का त्याग करना ‘अपरिग्रह व्रत' है। मोह के कारण अप्राप्त वस्तु पर भी चित्र में विप्लव होता है । इसलिए अपरिग्रह व्रत मूर्छा त्याग रूप है।
यतिधर्म में अनुरक्त ऐसे यतिन्द्रों के लिए उपरोक्त स्वरूप वाला सर्वचारित्र होता है । गृहस्थों के लिए देश (आंशिक) चारित्र इस प्रकार का है ।
सम्यक्त्व-मूल पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत, इस प्रकार गृहस्थों के बारह व्रत हैं।
हिंसा त्याग--लंगड़ा-लूलापन, कोढ़ अन्धत्यादि हिंसा के दुःखदायक फल देख कर बुद्धिमान पुरुष को निरपराध त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा का त्याग कर देना चाहिए ।
___ असत्य त्याग --गूंगा, तोतला, अस्पष्ट वचन और मुखरोगादि अनिष्ट फल के कारणों को समझ कर कन्या, गाय और भूमि संबंधी असत्य, धरोहर (थापण) दबा लेना और झूठी साक्षी देना, ये पाँच प्रकार के बड़े असत्य का त्याग करना चाहिए।
अदत्त त्याग - दुर्भाग्य, दासत्व, अंगच्छेद, दरिद्रता आदि कटु परिणाम का कारण जान कर स्थूल चोरी का त्याग करना चाहिए।
अब्रह्म त्याग--नपुंसकत्व, इन्द्रिय-छेद आदि बुरे फलों का कारण ऐसे अब्रह्मचर्य के फल का विचार कर के बुद्धिमान् प्राणियों को स्वस्त्री में ही संतोष रख कर, परस्त्री का त्याग करना चाहिए ।
परिग्रह त्याग--असंतोष, अविश्वास, आरम्भ और दुःख, ये सभी परिग्रह की मूर्छा के फल हैं । इसलिए परिग्रह का परिमाण करना चाहिए । ये पाँच अणुव्रत हैं।
दिग्विरति-छहों दिशाओं में मर्यादा की हुई भूमि की सीमा का उल्लंघन नहीं करना । यह प्रथम गुणव्रत है।
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+ वैक्रिय और औदारिक, यों दो प्रकार का मैथुन, मन, वचन और काया के भेद से छह प्रकार का हआ। इसके करन, करावन और अनुमोदन, इन तीन प्रकारों से गुणन करने पर अठारह भेद होते है।
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