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तीर्थकर चरित्र
होती है, वह ' शम' नामक लक्षण है ।
संवेग --कर्म परिणाम और संसार की असारता का चिन्तन करते हुए जीव को विषयों के प्रति वैराग्य भाव उत्पन्न हो, उसे 'संवेग' कहते है ( मोक्ष की अभिलाषा अथवा धर्म- प्रेम को भी 'संवेग' कहते हैं ) ।
निर्वेद - - संवेगवंत आत्मा को संसार कारागृह के समान और स्वजन, बन्धन रूप लगते हैं । इस प्रकार संसार और सांसारिक संयोगों से होने वाला विरक्ति भाव ' निर्वेद' लक्षण है ।
अनुकम्पा -- एकेन्द्रियादि सभी प्राणियों को संसार सागर में डूबते हुए देख कर हृदय का आर्द्र -- कोमल हो जाना, दुःखी होना और दुःख निवारण के उपाय में यथाशक्ति प्रवृत्ति करना "अनुकम्पा " है ।
आस्तिक्य -- इतर दर्शनों के तत्त्वों को सुनने पर भी आर्हत् तत्त्व (जिन प्रणीत तत्त्व) में आकाँक्षा रहित रुचि बनी रहना -- दृढ श्रद्धा रहना, ' आस्तिक्य' नाम का लक्षण है । इस प्रकार सम्यग्दर्शन रूपी रत्न का स्वरूप है । दर्शन रत्न की क्षणभर के लिए भी प्राप्ति हो जाय, तो इसके अभाव में पहले जो मति अज्ञान था, वह (अज्ञान) पराभूत हो कर मतिज्ञान रूप परिणत हो जाता है । श्रुतअज्ञान पराभूत हो कर श्रुतज्ञान हो जाता है और विभंगज्ञान मिट कर अवधिज्ञान के भाव को प्राप्त हो जाता है ।
चारित्र रत्न
सर्वथा प्रकार से सावद्य योग का त्याग करना 'चारित्र' कहाता है । वह अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्यं और अपरिग्रह, यों पाँच व्रतों से पाँच भेद का कहा जाता है । ये पाँच महाव्रत हैं । पाँच-पाँच भावना ( कुल २५ भावना) से युक्त ये महाव्रत मोक्ष साधना के लिए अवश्य पालनीय है ।
अहिंसा --प्रमाद के योग से त्रस और स्थावर जीवों के जीवन का नाश नहीं करना 'अहिंसाव्रत' है ।
सत्य -- प्रिय, हितकारी और सत्य वचन बोलना, 'सुनृत' (सत्य) व्रत कहाता है । अप्रिय और अहितकारी सत्य व त्रन भी असत्य के समान होता है ।
अस्तेय -- बिना दी हुई वस्तु का ग्रहण नहीं करना 'अस्तेय व्रत' है । क्योंकि द्रव्य
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