________________
भ. ऋषभदेवजी--दर्शन रत्न
मात्र ही होता है, वह 'औपशमिक सम्यक्त्व' कहाता है तथा उपशम-श्रेणि के योग से जिसका मोह शान्त हो गया हो ऐसी आत्मा को औपशमिक सम्यक्त्व' होता है।
२ सम्यक्त्व का त्याग कर के मिथ्यात्व के सम्मुख होते हुए प्राणी को अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय होते, जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह आवलिका पर्यन्त, सम्यक्त्व का परिणाम रहता है। उसे 'सास्वादन समकित' कहते हैं।
३ मिथ्यात्व- मोहनीय का क्षय और उपशम होने से होने वाला बोध, 'क्षयोपशमिक सम्यक्त्व' कहाता है । इसमें सम्यक्त्व-मोहनीय का उदय रहता है ।
४ जिस भव्यात्मा के अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क, मिथ्यात्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय का क्षय हो गया हो, ऐसी सम्यक्त्व-मोहनीय के अन्तिम अंश का वेदा करते हुए क्षायिक-भाव को प्राप्त .रन म तत्पर आत्मा का परिणाम ‘वेदक-सम्यक्त्व' कहाता है । (इसकी स्थिति एक समय मात्र की है)।
५ अनन्तानुबन्धी कषाय की चौकड़ी और दर्शन-त्रिक, मोहनीय कर्म की इन सातों प्रकृतियों को क्षय करने वाली प्रशस्त भाव वाली आत्मा को प्राप्त (अप्रतिपाति) सम्यक्त्व 'क्षायिक सम्यक्त्व' कहाता है ।
सम्यग्दर्शन, गुण की अपेक्षा---१ कारक २ रोचक और ३ दीपक, यों तीन प्रकार का है।
कारक-जो विरति भाव को उत्पन्न करने वाला--संयम और तप का आचरण कराने वाला है, वह कारक सम्यक्त्व है।
रोचक-जिसके परिणाम स्वरूप तत्त्वज्ञान में, हेतु भौर उदाहरण बिना ही दृढ़ प्रतीति हो, रुचि उत्पन्न हो, वह ‘रोचक सम्यक्त्व' कहाता है ।
दीपक--जो सम्यक्त्व को प्रदिप्त करे (जाहिर करे अथवा दूसरे श्रोता के सम्यक्त्व को प्रभावित करे), वह 'दीपक सम्यक्त्व' है (यह प्रथम गुणस्थान में होती है)।
सम्यक्त्व को पहिचानने के पाँच लक्षण इस प्रकार है--
१ शम २ संवेग ३ निर्वेद ४ अनुकम्पा और ५ आस्तिक्य । इन पाँच लक्षणों से सम्यक्त्व की पहिचान होती है ।
शम--जिसके परिणाम स्वरूप अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय नहीं होता। कषाय के शक्तिशाली प्रभाव (अनन्तानुबन्धी प्रकृति) के अभाव से, आत्मा में जो शान्ति उत्पन्न
-
-
x जिसने दर्शन-मोहनीय का भी उपशम ही किया हो ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org