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तीर्थंकर चरित्र
समान, अनन्त, एक और इन्द्रियों के विषय से रहित केवलज्ञान होता है।"
दर्शन रत्न
"शास्त्रोक्त तत्व में रुचि होना सम्यक् श्रद्धान है। यह स्वभाव से और गुरु के उपदेश से, यों दो प्रकार से प्राप्त होता है।
अनादि-अनन्त संसार के चक्र में भटकने वाले प्राणियों को, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय, इन चार कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटानुकोटि सागरोपम प्रमाण होती है। गोत्र और नाम कर्म की स्थिति बीस कोटानुकोटि सागरोपम प्रमाण होती है और मोहनीय कर्म की स्थिति सत्तर कोटानुकोटि सागरोपम की होती है। जिस प्रकार पर्वत में से निकली हुई नदी के प्रवाह में आया हुआ पत्थर, अथड़ाते-टकराते अपने-आप गोल हो कर कोमल हो जाता है, उसी प्रकार कर्मों की स्थिति क्रमशः २९, १९ और ६९ कोटाकोटि से कुछ अधिक क्षय हो जाय और एक कोटाकोटि सागरोपम से कुछ कम रह जाय, तब प्राणी यथाप्रवृत्तिकरण से ग्रंथी देश को प्राप्त करता है।"
ग्रंथी-राग-द्वेष के ऐसे परिणाम कि जिनका भेदन करना बड़ा कठिन होता है। यह राग-द्वेष की गांठ, काष्ठ की गांठ जैसी अत्यन्त दृढ़ और कठिनाई से टूटने वाली होती है। जिस प्रकार किनारे तक आया हुआ जहाज, विपरीत वायु चलने से पुनः समुद्र में चला जाता है, उसी प्रकार रागादि से प्रेरित कितने ही जीव, ग्रंथी के निकट आ कर भी उसे काटे बिना वापिस लौट जाते हैं। कुछ जीव, ग्रंथी के निकट आते-आते ही पुनः लौट जाते हैं और कितने ही प्राणी ग्रंथी के निकट आ कर ठहर जाते हैं। शेष कुछ ही प्राणी वैसे उत्तम भविष्य वाले होते हैं, जो 'अपूर्वकरण' से अपनी शक्ति लगा कर उस ग्रंथी को तत्काल तोड़ देते हैं। इसके बाद 'अनिवृत्तिकरण ' से अन्तरकरण कर के मिथ्यात्व को विरल कर अन्तर्मुहूर्त मात्र के लिए सम्यग्दर्शन को प्राप्त करते हैं। यह 'नैसर्गिक (स्वाभाविक) श्रद्धान' कहाती है और जो सम्यक्त्व, गुरु के उपदेश के अवलंबन से प्राप्त हो, वह 'अधिगम सम्यक्त्व' कहलाता है।
सम्यक्त्व के औपशमिक, सास्वादान, क्षयोपशमिक, वेदक और क्षायिक, ये पांच प्रकार हैं। १ जिस प्राणी की कर्मर
। जिसे सम्यक्त्व का प्रथम लाभ
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