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________________ भ. ऋषभदेवजी--ज्ञान रत्न wwwwwwwwwwww दुःखों का विचार करो । यदि दुःखों के कारण को ही नष्ट कर के सुखी बनना है, तो संमार को छोड़ो और मोक्ष के लिए प्रयत्नशील बनो । गर्भ का दुःख, नरक के दुःख के समान है। प्राणियों को जन्म के समय--प्रसव सम्बन्धी वेदना वैसी ही होती है, जैसी कुंभी (नारकी के नेरियों का उत्पत्ति स्थान) के मध्य में से खींच कर निकाले हुए नारक को होती है । मुक्त जीवों को ऐसी वेदना कभी नहीं होती। मुक्त जीवों को न तो, शस्त्राघात सम्बन्धी पीड़ा होती है, न व्याधि जन्य ही। यमराज का अग्रदूत, अनेक प्रकार की पीड़ाओं का कारण और सभी प्रकार के तेज और पराक्रम का हरण करके, जीव को पराधीन बनाने वाला--ऐसा बुढ़ापा भी मुक्त जीवों को प्राप्त नहीं होता और भव-भ्रमण की कारण रूप मृत्यु भी (जो देवता तक को मार देती है) मोक्ष प्राप्त सिद्धात्मा से दूर रहती है । __ मोक्ष में परम आनन्द, महान् अद्वैत एवं अव्यय सुख, शाश्वत स्थिति और केवलज्ञानरूपी सूर्य की अखण्ड ज्योति रही हुई है। इस शाश्वत स्थान को वही आत्मा प्राप्त कर सकती है, जो ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूपी तीन उज्ज्वल रत्नों का पालन करती हो।" ज्ञान रत्न रत्नत्रय की आराधना करने का उपदेश देते हुए भगवान् ने कहा; --- " जीवादि तत्त्वों का संक्षेप अथवा विस्तार से यथार्थ बोध होना ही सम्यग्ज्ञान है । यह मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान--ऐसे पांच भेद वाला है। मतिज्ञान-अवग्रह, ईहादि और बहुग्राही, अबहुग्राही आदि भेदयुक्त तथा इन्द्रिय और अनिन्द्रिय से उत्पन्न होने वाला मतिज्ञान है ।। श्रुतज्ञान--अंग, उपांग, पूर्व और प्रकीर्णक सूत्रों से अनेक प्रकार से विस्तार पाया हुआ तथा 'स्यात्' पद से अलंकृत श्रुतज्ञान अनेक प्रकार का है। ___ अवधिज्ञान--देव और नारक को भव के साथ और मनुष्य-तियंच को क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले अवधिज्ञान के मुख्यतः छः भेद हैं। मनःपर्ययज्ञान--ऋजुमति और विपुलमति, इन दो भेदों से मनःपर्यय ज्ञान होता है। विपुलमति मन:पर्ययज्ञान विशुद्ध एवं अप्रतिपाति होता है। केवलज्ञान--समस्त द्रव्यों और सभी पर्यायों को विषय करने वाला, विश्व-लोचन के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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