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म. ऋषभदेवजी--भगवान् का धर्मोपदेश
भरतेश्वर बिराजे । ज्योंही सवारी समवसरण के निकट पहुँची कि भरत महाराज ने पितामही से कहा
“देखिये, यह अनेक ध्वजाओं से सुशोभित इन्द्रध्वज दिखाई दे रहा है। यह मेरे पूज्य पिताजी की परम विजय की साक्षी दे रहा है। आप यह जो दुन्दुभि का नाद सुन रहे हैं, यह भी प्रभु का यशोगान कर रहा है। अब देखिये--यह रत्न और स्वर्णमय गढ़ दिखाई दे रहे है, ये देवों ने बनाये हैं । अरे आप देखें तो सही कि आपके पुत्र की सेवा बड़े बड़े देवी-देवता और इन्द्र तक कर रहे हैं।"
माता ने समवसरण की रचना देखी । वह मन्त्र-मुग्ध हो गई । प्रभु के परम शान्त श्रीमुख पर उनकी दृष्टि स्थिर हो गई । उन्होंने अपलक दृष्टि से प्रभु के मुख से झलकती हुई वीतरागता निरखी । उनके मन में भी यह भावना जगी कि--जैसा ऋषभ वीतराग हो गया, वैसी वीतरागता ही परम सुख देने वाली है। पराये पर मोहित होना दुःखदायक है और आत्मतुष्ठ रह कर अपने में ही लीन रहना सुखदायक है।" माता की विचारधारा वेगवती हुई, वज्रऋषभनाराच संहनन युक्त बलशाली आत्मा में स्थिरता वढी । कर्म-समूह झड़ने लगे। अप्रमत्तता मे क्षपक-श्रेणी में आगे कूच हुई । केवलज्ञानकेवलदर्शन प्राप्त कर के योगों का निरोध किया और शैलेषीकरण कर के मोक्ष प्राप्त कर लिया। देवों ने उनके शरीर को क्षीर-समुद्र में पधरा दिया। पितामही के वियोग से भरत महाराज को शोक हुआ। वे तत्काल हाथी पर से उतर कर और राजचिन्ह को त्याग कर समवसरण में गये और पूर्व द्वार से प्रवेश कर के प्रभु को वन्दन-नमस्कार कर इन्द्र के पीछे बैठ गए।
भगवान् का धमोपदेश
इस अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेवजी ने केवलज्ञान-केवलदर्शन होने के पश्चात् बारह प्रकार की परिषदा में जो धर्मोपदेश दिया, वह इस प्रकार था--
" आधि, व्याधि, जरा और मृत्यु रूपी सैकड़ों ज्वालाओं से घिरा हुआ यह संसार, देदीप्यमान अग्नि के समान है। सभी सांसारिक प्राणी इस दावानल से भयभीत हैं। इस भय से मुक्त होने का प्रयत्न करना ही बुद्धिमानों का कर्तव्य है। जिस प्रकार असह्य गर्मी से बचने के लिए सुखार्थी लोग, रेगिस्तानी मार्ग को ठण्डे समय में पार करते हैं। उस
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