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तीर्थकर चरित्र
तब वे ऋषभदेव के समाचार मँगवाने का कहती। भरत महाराज उन्हें सान्तवना देते रहते । इस प्रकार दिन बीतते-बीतते एक हजार वर्ष निकल गये।
महाराजा भरत को एक साथ दो बधाई सन्देश मिले । यमक नाम के सन्देशवाहक ने कहा-"महाराजाधिराज की जय हो । बधाई है महाराज ! भगवान् ऋषभदेव शकटमुख उद्यान में पधारे हैं और उन्हें केवलज्ञान-केवलदर्शन की प्राप्ति हुई है। देवगण, केवल. महोत्सव करने आ रहे हैं—महाराज ! जय हो ! विजय हो ! आनन्द हो ! कल्याण हो!"
भरत महाराज यह सन्देश सुन कर प्रसन्नता से भर उठे। इतने में शमक नाम के सन्देशवाहक ने प्रणाम कर के कहा
"स्वामिन् ! प्रबलतम शत्रु का पलभर में विनाश करने वाला, शक्ति का अनुपम भण्डार, देव-रक्षित अस्त्र 'सुदर्शनचक्र' आयुधशाला में आ उपस्थित हुआ है। यह सार्वभौम साम्राज्य के होने वाले अधिपति की सेवा में उपस्थित होता है । जय हो-विजय हो महाराज ! आप इस अवनीतल के आदि चक्रवर्ती सम्राट होंगे महाराज ! बधाई है।"
मरुदेवा की मुक्ति
भरतेश्वर ने सोचा---' मै पहले किस का उत्सव मनाऊँ।' तत्काल उन्होंने निश्चय कर लिया-भौतिक ऋद्धि का मिलना उतना प्रसन्नता का विषय नहीं हैं, जितना असंख्यकाल से इस भारत-भूमि पर से अस्त हुए धर्म को उत्पन्न करने वाला और मोक्ष के द्वार खोलने वाला केवलज्ञान रूपी भाव-सूर्य उदय होना है । यह संसार के भव्य प्राणियों को शाश्वत परम सुख देने वाला है। अतएव सर्वप्रथम केवलमहोत्सव मनाना ही उत्तम है । महाराजा ने केवलमहोत्सव मनाने की आज्ञा दी और सन्देशवाहकों को इस बधाई के उपलक्ष में बहमल्य पारितोषिक दे कर बिदा किया। फिर आप स्वयं सन्देशवाहक बन कर मरुदेवा के पास पहुँचे और बोले
"पितामही ! आप जिनकी याद में सदैव चिन्तित रहा करती थी, वे आपके प्रिय पुत्र भगवान् ऋषभदेवजी यहाँ पधार गये हैं, और उन्हें केवलज्ञान-केवलदर्शन रूपी शाश्वत आत्मऋद्धि प्राप्त हो गई है। आप दर्शन के लिए पधारने की तय्यारी
करें।"
प्रभ-वन्दन के लिए सवारी जुड़ी । मरुदेवा माता हाथी पर सवार हुई। उनके पास
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