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भ• ऋषभदेवजी-भरतेश्वर को बधाइयाँ
बनाया। उसके मध्य में पूर्व दिशा की ओर पादपीठिका युंक्त एक रत्नमय सिंहासन की रचना की । उस पर तीन छत्रों की व्यवस्था की। सिंहासन के आस-पास दो देव, श्वेत चामर ले कर खड़े रहे। समवसरण के चारों दरवाजों पर अद्भुत कान्ति वाला एक-एक 'धर्मचक्र' स्वर्ण-कमल में स्थापित किया।
प्रातःकाल, चारों प्रकार के देवों के विशाल समूह के साथ प्रभु, समवसरण में, पूर्व द्वार से पधारे और सिंहासन पर पूर्व-दिशा की ओर मुंह कर के विराजमान हुए। प्रभु के मस्तक के चारों ओर प्रभामण्डल प्रकाशमान हो रहा था । देव दुन्दुभि + आकाश में गंभीर प्रतिशब्द करती हुई बज रही थी । एक रत्नमय ध्वज, प्रभु के समीप शोभायमान हो रहा था।
वैमानिक देवियाँ पूर्व द्वार से प्रवेश कर के तीर्थङ्कर भगवान् को नमस्कार कर के प्रथम गढ़ में साधु-साध्वियों का स्थान छोड़ कर * अपने लिए नियत स्थान की ओर अग्निकोण में बैठी । भवनपति, ज्योतिषी और व्यन्तरों की देवांगनाएँ दक्षिण द्वार से प्रवेश कर नैऋत्य कोण में, और भवनपति, ज्योतिषी और व्यन्तर देव, पश्चिम द्वार से प्रवेश कर वायव्य कोण में बैठे । वैमानिक देवगण, मनुष्य और मनुष्य-स्त्रिये उत्तर दिशा के द्वार से समवसरण में प्रवेश कर के ईशानकोण में बैठे। दूसरे गढ़ में तिर्यञ्च आ कर बैठे और तीसरे गढ़ में सभी आने वालों के वाहन रहे ।
प्रभ के समवसरण में किसी के लिए प्रतिबन्ध नहीं था । वहाँ कोई भी मनुष्य, देव और तिर्यञ्च आ सकते थे। उन्हें न तो किसी प्रकार का भय था, न वैर-विरोध ही । य.. जातिगण अथवा पूर्व का कोई वैर-विरोध होता, तो भी शान्त रहता।
भरतेश्वर को बधाइयाँ
भगवान् के गृह-त्याग कर प्रव्रज्या स्वीकार करने के बाद पुत्र-विरह से मरुदेवी माता दुःखी रहती थी और आँसू बहाती रहती थी। महाराजा भरत उनके चरण-वन्दन करने आते,
+ देव-दुन्दुभि का उल्लेख आगम में नहीं है। • साधु-साध्वी थे ही कहाँ ? साध्वियों की तो अभी दीक्षा ही नहीं हुई थी।
x ग्रंथकार खड़ी रहने का लिखते हैं, किंतु औपपातिक सूत्र के अर्थ में मतभेद है। यक्ति से भी लगता है कि जब तियचिनी-उरपरिसद बैठ सकती है, तो मनुष्यनी और देवांगनाएँ क्यों खडी रहे।
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