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तीर्थंकर चरित्र
श्रेयांस कुमार ने उनका समाधान करते हुए कहा- "आपको ऐसा नहीं सोचना चाहिए। प्रभु पहले तो परिग्रहधारी राजा थे। किंतु संसार त्यागने के बाद सभी सावध योगों का त्याग कर के साधु बन गए। उन्होंने सभी प्रकार के परिग्रह और योगो को त्याग दिया है। फिर वे धन, हाथी, घोड़े और कामिनियों को स्वीकार कैसे कर सकते हैं ? यदि उन्हें आपसे ये वस्तुएं लेनी होती, तो प्राप्त सम्पदा को त्याग कर क्यों निकलते ? प्रभु तो अब खाने-पीने के लिए अन्न-पानी भी वैसा ही लेते हैं, जो हम लोग अपने लिए बनाते हैं, जो जीव-रहित और सभी प्रकार के दोषों से रहित हो । आप, प्रभु की चर्या को नहीं जानते हैं. इसलिए आप निर्दोष आहार-पानी को छोड़ कर दूसरी अनुपयोगी और संसारियों के लिए उपयोग में आने वाली चीजें ग्रहण करने की भगवान् से प्रार्थना करते रहे । ऐसी प्रार्थना कैसे स्वीकार हो सकती है ?
“युवराज ! हम तो उन्हीं बातों को जानते हैं, जो प्रभु ने हमें सिखाई है । प्रभु मे हमें ऐसे धर्मदान की विधि तो बताई ही नहीं, तब हम कैसे जानते ? किंतु आपने यह बात कैसे जान ली ?"-लोगों ने पूछा
"जिस प्रकार ग्रंथ के अवलोकन से अज्ञात बातें जानी जाती हैं, उसी प्रकार मैने भगवान के श्रीमुख का अवलोकन करते हुए जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त किया और उससे मुझे विविध गति के आठ भवों का स्मरण हो आया और पूर्व-भव में भगवान के साथ पाले हए संयम के स्मरण से सारी विधि का ज्ञान हो गया। गत रात्रि को मैंने, मेरे पिताश्री ने और सेठ सुबुद्धि ने जो स्वप्न देखे, उसका प्रत्यक्ष फल प्राप्त हो गया । मैने देखा-कंचन वर्ण वाला सुमेरु पर्वत श्याम हो गया और मैंने उसे दूध से सींच कर स्वच्छ किया। इसका प्रत्यक्ष फल मुझे यह मिला कि दीर्घ काल के उग्र तप से कृश हुए प्रभु को इक्षु-रस से पारणा कराया। जिससे वह पुनः सुशोभित हो गया।
__ "मेरे पिताश्री ने शत्रु के साथ युद्ध करते हुए जिन्हें देखा, वे प्रभु ही थे। प्रभु ने मेरे द्वारा इक्षु-रस का पारणा कर के परीषह रूपी शत्रु पर विजय प्राप्त की।"
"सुबुद्धि सेठ ने सूर्य-मण्डल से गिरी हुई सहस्र किरणों को मुझे पुनः सूर्यमंडल में आरोपित करते देखा, जिससे सूर्य पुनः सुशोभित हो गया। इसका फल सूर्य किरणों के समान प्रभु के शरीर का तेज+क्षीण हो रहा था, यह पारणे के प्रभाव से पुनः देदीप्यमान हो गया।"
+ श्री हेमचन्द्राचार्य ने यहाँ-सहन किरण रूप केवलज्ञान' मान कर बिना आहार के केवल
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