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________________ भ० ऋषभदेव जी-भगवान का पारणा थे। कुमार ने वन्दन-नमस्कार किया और अपलक दृष्टि से प्रभु के श्रीमुख को देखने लगा। उसे विचार हुआ कि "ऐसे महापुरुष को मैने पहले भी देखा है।" इस प्रकार बिवार करते उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ और उसने जाना कि "पूर्व-विदेह क्षेत्र में भगवान, वज्रनाभ के भव में चक्रवर्ती सम्राट थे, तब मैं उनका सारथी था। उसके पिता वज्रसेन महाराज तीर्थंकर थे। उन्हें मैने इसी रूप में देखे थे । जब श्री वज्रनाभ चक्रवर्ती ने श्री वज्रसेन तीर्थंकर के समीप दीक्षा ली, तब मैंने भी उसके साथ दीक्षा ली थी। उस समय तीर्थंकर भगवान् के श्रीमुख से मैंने सुना था कि यह वज्रनाभ, भरत-क्षेत्र में प्रथम तीर्थंकर होगा । में स्वयंप्रभादि के भव में इनके साथ रहा हूँ। इस भव में ये मेरे प्रपितामह हैं । सद्भाग्य से ये आज मेरे यहाँ पधार गये हैं। इस प्रकार वह विचार करता ही था कि किसी ने आ कर उसे इक्षु-रस के घड़े भेंट किए । श्रेयांस कुमार जातिस्मरण ज्ञान से निर्दोष भिक्षा-विधि जान गया था। उसने प्रभु से वह कल्पनीय रस ग्रहण करने की प्रार्थना की । प्रभु ने दोनों हाथों का करपात्र बना कर आगे किया। श्रेयांस कुमार इक्ष-रस के घड़े ले कर भगवान के कर-पात्र में खाली करने लगा और भगवान् रस-पान करने लगे। श्रेयांस कुमार के हर्ष का पार नहीं रहा। इस अवसर्पिणी के आदि महाश्रमण श्री ऋषभदेवजी ने दीक्षा लेने के एक वर्ष बाद पहली बार इक्ष-रस का पान किया । बेले के तप के साथ चैत्र कृ. ८ को दीक्षा ली थी, जिसका पारणा एक वर्ष बाद हुआ। प्रभु के पारणे से मनुष्यों और दवों में प्रसन्नता छा गई। आकाश में देव-दुंदुभि बजने लगी। देवगण "अहोदानम्, अहोदानम्" का उच्चारण करने लगे। रत्नों की वृष्टि,पांच वर्ण के उत्तम पुष्पों की वृष्टि, गन्धोदक की वृष्टि और वस्त्रों की वृष्टि, इस प्रकार पांच दिव्य प्रकट हुए । धर्मदान की प्रवृत्ति इस प्रकार श्री श्रेयांस कुमार से प्रारंभ हुई। प्रभु के पारणे की बात जान कर और रत्नादि की वृष्टि से विस्मित हो कर राजा और नागरिकजन श्रेयांस कुमार के भवन पर आने लगे । कच्छ और महाकच्छ आदि क्षत्री तापस भी आये । वे सभी हर्षोत्फुल्ल हो कर श्रेयांस कुमार को धन्यवाद दे कर उसके सौभाग्य की सराहना करने लगे और कहने लगे कि “प्रभु ने हम सभी के आग्रह और प्रार्थना की उपेक्षा की। हमारा आतिथ्य ग्रहण नहीं किया और हमें इस प्रकार भूला दिया कि जैसे हमें जानते ही नहीं हो-जब कि प्रभु ने हमारा लाखों पूर्व तक पुत्र के समान पालन किया था।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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