SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 73
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्थकर चरित्र कर वैताढय पर्वत पर आये। नमि ने दक्षिण श्रेणी पर पचास नगर बसाये और 'रथनुपुर' नगर बसा कर राजधानी बनाई । विनमि ने उत्तर श्रेणी में साठ नगर बसाय और 'गगन वल्लभ' नगर को राजधानी बनाया। वे दोनों धरणेन्द्र की बताई रीति से न्याय और नीति पूर्घक राज करने लगे। भगवान् का पारणा भगवान् आदिनाथजी मौन रह कर, निराहार एक वर्ष पर्यन्त आय-अनार्य देशों में विचरते रहे । विचरते-विचरते प्रभु 'गजपुर' (हस्तिनापुर) नामक नगर में पधारे । उस नगर में बाहुबली के पौत्र व सोमप्रभः राजा के पुत्र 'श्रेयांस कुमार' रहते थे। उन्होंने स्वप्न में देखा कि-'मेरु पर्वत जो स्वर्ण के समान है, वह कुछ श्याम हो गया हैं । उस पर्वतराज का उन्होंने दूध से अभिषेक कर के उज्ज्वल किया । उसका कालापन मिटाया ।' उसी रात को ‘सुबुद्धि' नाम के सेठ ने यह स्वप्न देखा-'सूर्य से निकल कर गिरी हुई सूर्य की सहस्र किरणों को श्रेयांस कुमार ने पुनः सूर्य में प्रवेश कराया, इससे सूर्य अत्यंत प्रकाशमान हुआ। 'सोमप्रभः नाम के राजा ने स्वप्न में देखा कि--'अनेक शत्रुओं से घिरे हुए किसी राजा ने मेरे पुत्र श्रेयांस कुमार की सहायता से विजय प्राप्त की।' श्रेयांस कुमार, सुबुद्धि सेठ और 'सोमप्रभः' राजा ने अपने-अपने स्वप्न का वर्णन एक दूसरे के सामने किया, किन्तु वे अपने स्वप्न के परिणाम का निर्णय नहीं कर सके । भगवान् ऋषभदेवजी ने उसी दिन हस्तिनापुर नगर में प्रवेश किया । प्रभु को आते देख कर लोग अपने-अपने घर से निकल कर प्रभु के निकट आ गये और अपने-अपने घर पधारने का आग्रह करने लगे। कोई स्नान, मर्दन, विलेपन के लिए आग्रह करने लगा, तो कोई वस्त्र, रत्न आभूषणादि ग्रहण करने के लिए प्रार्थना करने लगा और कोई अपनी परम सुन्दरी युवती कन्या ग्रहण करने का आग्रह करने लगा । कोई रथ, कोई घोड़ा, इस प्रकार लोग विविध प्रकार की भोग योग्य वस्तुएँ ग्रहण करने की प्रार्थना करने लगे। किंतु प्रभु उन सभी की प्रार्थना की उपेक्षा करते हुए आगे बढ़ते रहे । लोगों का कोलाहल बढ़ने लगा। जब यह कोलाहल श्रेयांस कुमार के कानों तक पहँचा, तो उसने अपने सेवक को कारण जानने के लिए भेजा । सेवक ने लौट कर निवेदन किया--" भगवान् ऋषभदेव पधारे हैं।" श्रेयांस कुमार यह शुभ सम्वाद सुन कर उठा और हर्षोल्लासपूर्वक प्रभु के सन्मुख आया। उस समय प्रभु उसके आंगन में पधार गए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy