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________________ भ० ऋषभदेवजी-भगवान् को केवलज्ञान इस प्रकार श्रेयांस कुमार से सुन कर सभी लोग अपने-अपने स्थान पर गये । भगवान् भी पारणा कर के अन्यत्र विहार कर गये। भगवान को केवलज्ञान भगवान् ऋषभदेव जी एक हजार वर्ष तक मौनयुक्त विविध प्रकार के तप एवं अभिग्रह करते हुए विचरते रहे । छद्मस्थावस्था के अंतिम दिन प्रभु बनीता नगरी के पुरिमताल नाम के उपनगर में पधारे और उसकी उत्तर-दिशा में स्थित 'शकटमुख' उद्यान में वटवृक्ष के नीचे ध्यानस्थ हो गए। छद्मस्थकाल की तपश्चर्या में कर्म के वन्द के वृन्द झड़ गये थे और आत्मा हलकी होती जा रही थी। घातीकर्मों की जड़ कटने की घड़ी निकट आ रही थी। ध्यान की धारा बढ़ी। अप्रमत्त गुणस्थान से अपूर्वकरण (निवृत्तिबादर) गुणस्थान में प्रवेश करने का सामर्थ्य प्रकट हुआ। धर्मध्यान से आगे बढ़ कर शुक्लध्यान की प्रथम पंक्ति पर पहुँचे। आत्मबल सविशेष प्रकट होने लगा। सत्ता एवं उदय में आये हुए कर्म-शत्रु विशेष रूप से नष्ट होने लगे और विजयकूच आगे बढ़ने लगी। अपूर्वकरण से अनिवत्ति बादर गुणस्थान में पहँचे, फिर सूक्ष्म-सम्पराय नाम के दसवें गुणस्थान में प्रवेश कर के शेष रहे हुए मोहनीय के महाअंग ऐसे लोभरूप महाशत्रु को भी परास्त कर के शुक्लध्यान की दूसरी सीढ़ी पर पहुँच गये और क्षीणमोह गुणस्थान प्राप्त कर लिया। इसके बाद ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय, इन तीन कर्मों को एक साथ नष्ट कर दिया। इस प्रकार चारित्र अंगीकार करने के एक हजार वर्ष के बाद फागन-कृष्णा एकादशी को जब चन्द्रमा उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में आया, तब प्रातःकाल के समय प्रभु को केवलज्ञान और केवल-दर्शन प्राप्त हुआ । वे सर्वज्ञ-सर्वदर्शी हुए। लोकालोक के भूत, भविष्य और वर्तमान के सभी भाव जानने-देखने लगे । प्रभु को केवलज्ञान प्राप्त होने पर विश्व में एक प्रकाश फैल गया और सुखशान्ति की लहर व्याप्त हो गई। नारकीय जीवों को भी कुछ समय के लिए सुखानुभव हुआ। भ्रष्ट' होना माना, कितु यह कल्पना समझ में नहीं आई । क्षुधा-परीषह एवं तप का प्रभाव देह पर तो पड़ता है, किंतु उससे आत्मा भी कमजोर हो जाती है और आत्मगुण नष्ट होते हैं-ऐसा नहीं माना जाता । इसलिए हमने अपनी मति से यहाँ 'शरीर का तेज क्षीण होने का लिखा है। फिर बहश्रत कहे, वह सत्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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