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तीर्थकर चरित्र
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सुदर्शनजी ने सारा राज्यभार कुमार अरनाथ को दे दिया । २१००० वर्ष तक आप मांडलिक राजा के पद पर रहे। उसके बाद चक्ररत्न की प्राप्ति हुई और छह खंड पर विजय प्राप्त करने में ४०० वर्ष लगे। इसके बाद आप २०६०० वर्ष तक चक्रवर्ती सम्राट के रूप में राज करते रहे। इसके बाद वर्षीदान दे कर और अपने पुत्र अरविंद को राज्य का भार सौंप कर मार्गशीर्ष-शुक्ला एकादशी को रेवती नक्षत्र में दिन के अन्तिम प्रहर में, एक हजार राजाओं के साथ, बेले के तप से प्रवजित हुए । तीन वर्ष तक आप छद्मस्थ विचरते रहे । फिर उसी नगर के सहस्राम्रवन में, आम्रवृक्ष के नीचे ध्यान धर के खड़े रहे। कार्तिक शुक्ला द्वादशी को रेवती नक्षत्र में प्रभु को केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त हुआ। समवसरण की रचना हुई । प्रभु ने अपने प्रथम धर्मोपदेश में कहा; --
धर्मदेशना-राग-द्वेष त्याग
"संसार में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थों में एक मोक्ष पुरुषार्थ ही ऐसा है कि जिस में सुख से लबालब भरा हुआ सागर हिलोरें ले रहा है। उसमें एकान्त सुख ही सुख है, दुःख का एक सूक्ष्म अंश भी नहीं है । यह मोक्ष पुरुषार्थ, ध्यान की साधना से सिद्ध होता है, किन्तु ध्यान की साधना तभी हो सकती है, जब कि मन अनुकूल हो। मन की अनुकूलता के बिना ध्यान नहीं हो सकता। जो योगी पुरुष हैं, वे तो मन को आत्मा के अधिकार में रखते हैं, किन्तु रागादि शत्रु ऐसे हैं, जो मन को अपनी ओर खींच कर पुद्गलाधीन कर देते हैं । यदि सावधानीपूर्वक मन का निग्रह कर के शुभ परिणति में लगाया हो, तो भी किंचित् निमित्त पा कर, रागादि शत्रु पिशाच की तरह बारम्बार छल करते हुए अपना अधिकार जमाने का प्रयत्न करते हैं। राग-द्वेष रूपी अन्धकार से अन्धे बने हुए जीव को अज्ञान, अधोगति में ले जा कर नरक रूपी खड्डे में गिरा देता है ! द्रयादि में प्रीति और रति (आसक्ति) राग है और अप्रीति और अरति (अरुचि--घृणा) द्वेष है । यह राग और द्वेष ही सभी प्राणियों के लिए दृढ़ बन्धन रूप है । यही सभी प्रकार के दुःखों का मूल है । संसार में यदि राग-द्वेष नहीं हो, तो सुख में कोई विस्मय नहीं होता और दुःख में कोई कृपण नहीं होता, तथा सभी जीव मुक्ति प्राप्त कर लेते । राग के अभाव में द्वेष और द्वेष के अभाव में राग रहता ही नहीं । इन दोनों में से एक का त्याग कर दिया जाय, तो दोनों का त्याग हो जाता है । कामादि दोष, राग के परिवार में हैं और
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