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भ० अरनाथ स्वामी
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जम्बूद्वीप के पूर्व-विदेह में वत्स' नाम का विजय है । उसमें सुसीमा नाम की नगरी थी। 'धनपति' नरेश वहाँ के शासक थे। वे दयालु, नम्र और शांत स्वभाव वाले थे। उनके राज्य में सर्वत्र शान्ति और सुख व्याप्त थे। उन उदार हृदय नरेश के मनमन्दिर में जिनधर्म का निवास था । नरेश ने संसार से विरक्त हो कर संवर नाम के संयती के समीप प्रव्रज्या स्वीकार कर ली। साधना करते हुए उन्होंने तीर्थंकर नाम कर्म को निकाचित कर लिया और समाधिभाव में काल कर के सर्वोपरि ग्रेवेयक में अहमेन्द्र के रूप में उत्पन्न हुए।
जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में हस्तिनापुर नाम का नगर था । वहाँ के नगर निवासी भी समृद्ध और राजसी ठाठ से युक्त थे। राजाधिराज 'सुदर्शन' उस नगर के अधिपति थे। 'महादेवी' उनकी पटरानी थी। वह महिलाओं के उत्तमोत्तम गुणों और लक्षणों से युक्त थी।
मुनिराज श्री धनपतिजी का जीव ऊपर के अवेयक का आयु पूर्ण कर के फाल्गुन शुक्ला द्वितिया को रेवती नक्षत्र में च्यव कर, राजमहिषी महादेवी की कुक्षी में उत्पन्न हुआ। महारानी ने चौदह महास्वप्न देखे । गर्भकाल पूर्ण होने पर सुकुमार पुत्र का जन्म हुआ। जन्मोत्सव आदि सभी कार्य तीर्थंकर जन्म के अनुसार हुए । माता ने स्वप्न में चक्र के आरे देखे थे, इसलिए पुत्र का नाम 'अर' रखा गया। यौवनवय प्राप्त होने पर अनेक राजकुमारियों के साथ विवाह किया। जन्म से २१००. वर्ष व्यतीत होने पर, महाराज
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