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म० अरनाथ स्वामी--वीरभद्र का वृत्तांत
मिथ्याभिमान आदि द्वेष का परिवार है। मोह, राग और द्वेष का पिता, बीन नायक अथवा परमेश्वर है । यह मोह, रागादि से भिन्न नहीं है। इसलिए समस्त दोषों का पितामह (दादा) मोह ही है । इससे सब को सावधान ही रहना चाहिए । संसार में राग-द्वेष और मोह--ये तीनों दोष ही हैं । इनके सिवाय और कोई दोष नहीं है । ये त्रिदोष ही संसार समुद्र में परिभ्रमण करने के कारण हैं। जीव का स्वभाव तो स्फटिक रत्न के समान स्वच्छ एवं उज्ज्वल है, किन्तु इन तीनों दोषों के कारण ही जीव के विविध रूप हुए हैं ।
अहा ! इस विश्व के आध्यात्मिक राज्य में कैसी अराजकता फैल रही है । रागद्वेष और मोह रूपी भयंकर डाकू, जीवों के ज्ञान रूपी सर्वस्व तथा स्वरूप-स्थिरता रूपी महान् सम्पत्ति को दिन-दहाड़े, सबके सामने लूट लेते हैं। जो जीव निगोद में हैं और जो शीघ्र ही मुक्ति प्राप्त करने वाले हैं, उन सब पर मोहराज की निर्दय एवं लटारु सेना टूट पड़ती है । क्या मोहराज को मुक्ति के साथ शत्रुता है, या मुमुक्षु के साथ वैर है, कि जिससे वह जीव का मुक्ति के साथ होते हुए सम्बन्ध में बाधक बन रहा है ?
___आत्मार्थी मुनिवरों को न तो सिंह का भय है, न व्याघ्र, सर्प, चोर, अग्नि और जल का ही । वे रागादि त्रिदोष से ही भयभीत हैं, क्योंकि ये इस भव और पर भव में दुःखी करने वाले हैं । संसार से पार होने का महासंकट वाला मार्ग, महायोगियों ने ही अपनाया है । इस मार्ग के दोनों ओर राग-द्वेष रूपी व्याघ्र और सिंह खड़े हैं । आत्मार्थी मुनिवरों को चाहिए कि प्रमाद रहित और समभाव सहित हो कर मार्ग पर चले और राग-द्वेष रूपी शत्रु को जीते ।"
कुंभ आदि ३३ गणधर हुए। संघ की स्थापना हुई। प्रभु प्रामानुग्राम विहार करने लगे।
वीरभद्र का वृत्तांत
भ० अरनाथ स्वामी ग्रामानुग्राम विचरते हुए पद्मिनीखंड' नाम के नगर के बाहर पधारे । समवसरण में एक वामन जैसा ठिंगना दिखाई देनेवाला पुरुष आया और धर्मोपदेश सुनने लगा । देशना के बाद सागरदत्त नाम के एक सेठ ने पूछा--" भगवन ! मैं अत्यन्त दुःखी हूँ। मेरी पुत्री प्रियदर्शना, रूप, यौवन, कला और चतुराई में परम कुशल है । उसके योग्य वर नहीं मिल रहा था। मैं और मेरी पत्नी बड़े चिन्तित थे । एक दिन
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