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________________ म० शांतिनाथजी - महाराजा कुरुचन्द्र का पूर्वभव ३५३ उपभोग नहीं करते- यह साधारण पुण्य का फल है। जो वस्तु बहुतजनों के उपभोग के योग्य हो, उसका एक व्यक्ति से भोग नहीं हो सकता। इसीसे तुझे विचार होता रहता है कि 'मैं यह वस्तु दूसरों को दूंगा।' अब तुम अपना पूर्वभव सुनो।" इसी जम्बूद्वीप के भरत-क्षेत्र में, कोशल देश के श्रीपुर नगर में चार वणिक-पुत्र रहते थे। उनके नाम थे--सुधन, धनपति, धनद और धनेश्वर । चारों में गाढ़ मैत्री-भाव था। एकबार चारों मित्र धनोपार्जन के लिए रत्नदीप की ओर चले। उनके साथ 'द्रोण' नाम का एक सेवक था। वह भोजन सामग्री उठा कर चलता था। मार्ग में एक महावन पड़ता था। अटवी का बहुतसा भाग लांघ जाने पर इनके पास की भोजन-सामग्री कम हो गई। चलते-चलते वृक्ष के नीचे एक ध्यानस्थ मुनि दिखाई दिये । उनके मन में भक्ति उत्पन्न हुई। उन्होंने सोचा -" इन महात्मा को कुछ आहार देना चाहिए"-यह सोच कर उन्होंने द्रोण से कहा-"भद्र ! इन मुनिजी को कुछ आहार दे दो।" द्रोण ने श्रद्धापूर्वक उच्च भावों से मुनि को प्रतिलाभित किये और महा भोग-फल वाला पुण्य उपार्जन किया। वहाँ से सभी लोग रत्नद्वीप गए और व्यापार से बहुतसा धन संग्रह कर के लौट कर अपने घर आ गए । वे सुखपूर्वक रहने लगे। उन चारों मित्रों में धनेश्वर और धनपति मायावी थे और द्रोण की भावना उन चारों से विशेष शुद्ध थी । वह द्रोण, आयु पूर्ण कर के तू कुरुचन्द्र हुआ । सुधन मर कर कम्पिलपुर में 'वसंतदेव' नामक वणिक-पुत्र हुआ, धनद, कृतिकापुर में कामपाल' नाम का व्यापारी हुआ, धनपति, शंखपुर में 'मदिरा' नाम की वणिक-कन्या हुई और धनेश्वर, जयंती नगरी में केसरा' नाम की कन्या हुई । सुधन का जीव वसंतदेव, यौवन वय में व्यापार के लिए जयंती नगरी में आया । एकबार चन्द्रोत्सव के समय, केसरा को देख कर वह मोहित हो गया । केसरा भी उस पर मोहित हुई । दोनों में पूर्वभव का स्नेह जाग्रत हुआ । वसंतदेव ने केसरा के भाई जयंतदेव ने मैत्री सम्बन्ध जोड़ा और दोनों का एक दूसरे के घर आना-जाना और खाना-पीना होने लगा । एकबार वसंतदेव को, कामदेव की पूजा करती हुई केसरा दिखाई दी । जयंतदेव ने स्नेह सहित वसंतदेव को पुष्पमाला अर्पण की । यह देख कर केसरा पुलकित हो गई। उसने इसे अच्छा शकुन समझा। केसरा के चेहरे पर के भाव वहां खड़ी हुई धायपुत्री प्रियंकरा ने देखा और केसरा से कहा "तेरे भाई, मित्र का सत्कार करते हैं, तो तू भी उनका सत्कार कर ।" यह सुन कर केसरा हर्षित होती हुई बोली,--"तू ही सत्कार कर ले।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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