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का सेवन क्यों नहीं किया जाय ? शुभ विषय, कभी अशुभ हो जाते हैं और अशुभ विषय शुभ हो जाते हैं, फिर राग और द्वेष किस पर करना ?
तीर्थङ्कर चरित्र
भले ही कोई विषय रुचिकर लगे या अरुचिकर, किन्तु तात्त्विक दृष्टि से देखने पर पदार्थों में कभी शुभत्व अथवा अशुभत्व नहीं होता। इसलिए जो प्राणी मन को शुद्ध रख कर इन्द्रियों को जीतता है और कषायों को क्षीण करता है, वह स्वल्पकाल में ही अक्षीण सुख के स्थान ऐसे मोक्ष को प्राप्त कर लेता है ।'
महाराजा चक्रायुध, अपने पुत्र कुरुचन्द्र को राज्य दे कर अन्य पैंतीस राजाओं के साथ दीक्षित हुए । इस देशना के बाद भगवान् के चक्रायुध आदि ९० गणधर हुए और भी बहुत से नर-नारी दीक्षित हुए। बहुतों ने श्रावक व्रत ग्रहण किये और बहुत-से सम्यग् - दृष्टि हुए ।
महाराजा कुरुवन्द्र का पूर्वभव
कालान्तर में भगवान् विचरते हुए पुनः हस्तिनापुर पधारे। महाराजा कुरुचन्द्र प्रभु
के दर्शनार्थं आये । धर्मदेशना सुनने के बाद महाराजा ने जिनेश्वर भगवान् से पूछा ;'भगवान् ! मैं पूर्वभव के किस पुण्य के उदय से यहाँ राजा हुआ ? यह किस कर्म का फल है कि मुझे प्रतिदिन पाँच वस्त्र और फल आदि भेंट स्वरूप प्राप्त होते हैं और में इन वस्तुओं का उपभोग नहीं कर के अन्य प्रियजनों को देने के लिए रख छोड़ता हूँ. परन्तु दूसरों को दे भी नहीं सकता ? यह किस कर्म का उदय है--प्रभो ! "
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भगवान् ने फरमाया--" कुरुचन्द्र ! पूर्वभव में किये हुए मुनि-दान का फल यह राज्य लक्ष्मी है । नित्य पाँच वस्तु की भेंट भी इसी का परिणाम है, किन्तु तुम इसका
* जो पदार्थ लोक दृष्टि से शुभ माने जाते है, वे ही परिस्थिति विशेष में अशुभ माने जाते है । विवाहोत्सव के समय मंगलगान, वादिन्त्र और कुंकुमादि शुभ माने जाते हैं, किन्तु मृत्यु प्रसंग पर ये ही वस्तुएँ अप्रिय एवं त्याज्य होती है । स्वस्थ और बलवान् मनुष्य के लिए पौष्टिक मिष्टान्न शुभ और चिरायता तथा कुनैन अशुभ होता है, किन्तु ज्वर पीड़ित के लिए चिरायता और कुनैन शुभ और गरिष्ट भोजन अशुभ हो जाता है | तीर्थस्थल का जल पवित्र माना जाता है, किन्तु वही जल अपृश्य स्थल में अस्पृश्य समझा जाता है । पर्याय परिवर्तन से शुभ वस्तु स्वयं अशुभ बन जाती है और अशुभ, शुभ के रूप आ जाती है । अतएव तात्त्विक दृष्टि से शुभत्व नहीं है |
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