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म० शांतिनाथजी-धर्मदेशना--इन्द्रिय-जय
कर के वे चले गए। इसके बाद प्रभु ने वर्षीदान दिया और अपने पुत्र राजकुमार चक्रायुद्ध को राज्य का भार सौंप कर प्रवजित होने के लिए तत्पर हो गए । इन्द्रादि देवों और महाराजा चक्रायुध आदि मनुष्यों ने दीक्षा-महोत्सव किया और ज्येष्ठ-कृष्णा चतुर्दशी के दिन भरणी नक्षत्र में दिन के अंतिम प्रहर में, बेले के तप से, एक हजार राजाओं के साथ, सिद्ध को नमस्कार कर के प्रवज्या ग्रहण की। उसी समय भगवान् को मनःपर्यव ज्ञान उत्पन्न हुआ।
___ महर्षि शांतिनाथजी ग्रामानुग्राम विहार करते हुए एक वर्ष बाद हस्तिनापुर पधारे और सहस्राम्र वन उद्यान में ठहरे। वहाँ नन्दी वृक्ष के नीचे बेले के तप से प्रभु शुक्लध्यान में लीन थे। पौष मास के शुक्ल पक्ष की नोमी का दिन था । चन्द्र भरणी नक्षत्र में आया था कि भगवान् के अनादिकाल से लगे आये पाती-कर्म सर्वथा नष्ट हो गए और प्रभु को केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त हो गया। प्रभु सर्वज्ञ-सर्वदर्शी हो गए । इन्द्रों ने प्रभु का केवल महोत्सव किया। समवसरण की रचना हुई। भगवान् ने धर्मदेशना दी । यथा
धर्मदेशना-इन्द्रिय-जय
जीवों के लिए अनेक प्रकार के दुखों का मूल कारण यह चतुर्गति रूप संसार है। जिस प्रकार विशाल भवन के लिए स्तंभ आधारभूत होते हैं, उसी प्रकार क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय रूपी चार स्तंभ भी चतुर्गति रूप संसार के आधार के समान हैं। मूल सूख जाने पर वृक्ष अपने-आप सूख जाता है, उसी प्रकार कषायों के क्षीण होते ही संसार अपने-आप क्षीण हो जाता है। किन्तु इन्द्रियों पर अधिकार किये बिना कषायों का क्षय होना अशक्य है। जिस प्रकार सोने का शुद्धिकरण, बिना प्रज्वलित अग्नि के नहीं हो सकता, उसी प्रकार इन्द्रिय-दमन के बिना कषायों का क्षय नहीं हो सकता।
इन्द्रिय रूपी चपल एवं दुर्दान्त अश्व, प्राणी को बलपूर्वक खींच कर नरक की ओर ले जाता है । इन्द्रियों के वश में पड़ा हुआ प्राणी, कषायों से भी हार जाता है । ये इन्द्रियाँ. प्राणी को वश में कर के उनका पतन, बन्धन, वध और घात करवा देती है। इन्द्रियों के आधीन बना हुआ ऐसा कोन पुरुष है जो दुःख परम्परा से बच गया हो ?
बहुत से शास्त्रों और शास्त्र के अर्थों को जानने वाला भी इन्द्रियों के वश हो कर
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