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________________ ३५० तीर्थङ्कर चरित्र बालक के समान चेष्टा करता है। यह कितनी लज्जा की बात है कि इन्द्रिय के वश हो कर भरत महाराज ने अपने भाई बाहुबली पर चक्र चलाया । बाहुबली की जीत और भरतजी की पराजय में भी इन्द्रियों का ही प्राबल्य था। अरे, जो चरम-भव में रहे हुए हैं, जिनका यह भव ही अन्तिम है और जो इसी भव में केवलज्ञान-केवल दर्शन प्राप्त कर मुक्त होने वाले हैं, वे भी शस्त्रास्त्र ले कर युद्ध करें। क्या यह इन्द्रियों की दुरन्त महिमा नहीं है ? प्रचण्ड शक्तिशाली इन्द्रियों से पशु और सामान्य मनुष्य दण्डित हो जाय, तो यह फिर भी समझ में आ सकता है, किन्तु जो महान् आत्मा, मोह को दबा कर शांत कर देते हैं (उपशांत-मोह वीतराग भी बाद में) और जो पूर्वो के श्रुत के पाठी हैं. वे भी इन्द्रियों से पराजित हो जाते हैं, तब दूसरों का तो कहना ही क्या? यह आश्चर्यजनक बात है। इन्द्रियों के वश में पड़े हुए देव-दानव मनुष्य और तपस्वी भी निन्दित कम करते हैं । यह कितने खेद की बात है ? इन्द्रियों के वश हो कर ही तो मनुष्य अभक्ष्य भक्षण, अपेय पान और अगम्य के साथ गमन करता है। निर्दय इन्द्रियों द्वारा घायल हुए जीव, अपने उत्तम कुल और सदाचार से भ्रष्ट हो कर वेश्याओं का दासत्व करते हैं। उनके नीच काम करते हैं । मोह में अन्धे बने हा परुषों की परद्रव्य और परस्त्री में जो प्रवत्ति होती है. वह जाग्रत इन्द्रियों का विलास है, अर्थात् इन्द्रियाँ जाग्रत हो कर तभी विलास कर सकती है, जब कि मनुष्य मोह में अन्धा बन जाता है । ऐसे दुराचार के कारण मनुष्य के हाथ-पांव तथा इन्द्रियों का छेद किया जाता है और मृत्यु को भी प्राप्त हो जाता है। समझदार लोग उन्हें देख कर हंसते हैं-जो दूसरों को तो विनय, सदाचार, धर्म और संयम का उपदेश करते हैं, किन्तु स्वयं इन्द्रियों से पराजित हो चुके हैं । एक वीतराग भगवंत के बिना, इन्द्र से ले कर एक कीड़े तक सभी प्राणी इन्द्रियों से हारे हुए हैं। हथिनी के स्पर्श से उत्पन्न सुख का आस्वादन करने की इच्छा से, हाथी अपनी सूंड को फैलाता हुआ धंसता है और बन्धन में पड़ जाता है । अगाध जल में विचरण करने वाले मत्स्य, धीवर के द्वारा काटे में लगाये हुए मांस में लुब्ध हो कर फंस जाते हैं और अपने प्राण गँवा देते हैं । मस्त गजेन्द्र के गंडस्थल पर रहे हए मद के गन्ध पर आसक्त, भ्रमर गजेन्द्र के कर्णताल के आघात से तत्काल मृत्यु को प्राप्त करता है। स्वर्ण-शिखा जैसी दीपज्वाला के दर्शन से मोहित हो कर पतंगा, दीपक पर झपट कर जल मरता है। मनोहर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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