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तीर्थङ्कर चरित्र
पुत्र का नाम 'चक्रायुध' रखा । यौवन वय प्राप्त होने पर अनेक राजकुमारियों के साथ राजकुमार का विवाह किया ।
पाँचवें चक्रवर्ती सम्राट
न्याय एवं नीतिपूर्वक राज्य का संचालन करते हुए महाराजा शांतिनाथजी को पचीस हजार वर्ष व्यतीत होने पर, अस्त्रशाला में चक्ररत्न का प्रादुर्भाव हुआ। महाराजा ने चक्ररत्न का अठाई महोत्सव किया। इसके बाद एक हजार देवों से अधिष्टित चक्ररत्न, अस्त्रशाला से निकल कर पूर्व दिशा की ओर चला। उसके पीछे महाराजा शांतिनाथजी सेना सहित दिग्विजय करने के लिए रवाना हुए। समुद्र के किनारे सेना का पड़ाव डाला गया । महाराजा मागध तीर्थ की दिशा की ओर मुंह कर के सिंहासन पर बैठे । मागधदेव का आसन चलायमान हुआ । अवधिज्ञान से देव ने महाराजा को देखा और भावी चक्रवर्ती तथा धर्मचक्रवर्ती जान कर हर्षयुक्त, बहुमूल्य भेंट ले कर सेवा में उपस्थित हुआ और प्रणाम कर भेंट अर्पण करता हुआ बोला ; --" प्रभो । मैं मागधदेव हूँ । आपने मुझ पर कृपा की। मैं आपका आज्ञाकारी हूँ और पूर्व दिशा का दिग्पाल हूँ। मैं आपकी आज्ञा का पालन करता रहूँगा ।" महाराजा शांतिनाथजी ने देव की भेंट स्वीकार की और योग्य सत्कार कर के बिदा किया। वहाँ से चक्ररत्न दक्षिण दिशा की ओर गया। वहाँ वरदाम तीर्थ के देव ने भी उसी प्रकार आज्ञा शिरोधार्य की । उसी प्रकार पश्चिम दिशा का प्रभास तीर्थपति देव भी आज्ञाधीन हुआ । इस प्रकार चक्रवर्ती परम्परानुसार दिग्विजय करते हुए और किरातों के उपद्रव का सेनापति द्वारा युद्ध से पराभव करते और आज्ञाकारी बनाते हुए सम्पूर्ण छह खंड की साधना की । दिग्विजय का कार्य आठ सौ वर्षों में पूर्ण कर के महाराजा हस्तिनापुर पधारे। आपको चौदह रत्न और नवनिधान की प्राप्ति हुई । देवों और राजाओं ने महाराजा का चक्रवर्तीपन का उत्सव किया और महाराजा शांतिनाथजी को इस अवसर्पिणी काल के पाँचवें चक्रवर्ती घोषित किया । इसके बाद आठ सौ वर्ष कम पच्चीस हजार वर्ष तक आपने चक्रवर्ती पद का पालन किया ।
अब चक्रवर्ती सम्राट श्री शांतिनाथजी के संसार त्याग का समय निकट आ रहा था । लोकान्तिक देव आपकी सेवा में उपस्थित हो कर अपने कल्प के अनुसार निवेदन करने लगे ; - " "हे भगवन् ! अब धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करिये," इतना कह कर और प्रणाम
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