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________________ भ० शांतिनाथजी -- कबूतर की रक्षा में शरीर दान पूर्ण स्वर से बोला--" मुझे अभयदान दो, मुझे बचाओ, " इससे आगे वह नहीं बोल सका । यह सुन कर नरेश ने कहा--" तू निर्भय होजा । यहाँ तुझे किसी प्रकार का भय नहीं होगा ।" इस शब्दों ने कबूतर के मन में गांति उत्पन्न कर दी। वह पिता के समान रक्षक नरेश की गोद में, एक बालक के समान बैठा रहा । क्षणभर बाद ही एक बाज पक्षी आया और कबूतर को राजा की गोद में बैठा देख कर मानव भाषा में बोला -- "महाराज ! इस कबूतर को छोड़ दीजिये। यह मेरा भक्ष्य है । मैं इसे ही खोजता हुआ आ रहा हूँ ।" Jain Education International 64 'अरे बाज ! अब यह कबूतर तुझे नहीं मिल सकता । यह मेरी शरण में है । क्षत्रिय-पुत्र शरणागत की रक्षा एवं प्रतिपालना करते हैं । तुझे भी ऐसा निन्दनीय कृत्य नहीं करना चाहिए। किसी प्राणी का भक्षण करना कभी हितकार नहीं होता । क्षणिक सुख में लुब्ध हो कर तू मांस भक्षण करता है, किन्तु यह क्षणिक सुख, भवान्तर में हजारों-लाखों वर्षो पल्योंपमों और सागरोपमों तक नरक के भीषण दुःख का कारण बन जाता है । क्षणिक सुख के लिए निरपराध -- अशक्त प्राणियों के प्राण हरण कर के दीर्घकालीन महादुःख का महाभार बढ़ाना मूर्खता है । जैसे तुझे दुःख अप्रिय है, वैसे ही इस कबूतर को भी दुःख अप्रिय है। यदि तेरा एक पंख उखाड़ लिया जाय, तो तुझे कितना कष्ट होगा ? तब बिचारे इस कबूतर का जीवन ही समाप्त करने पर इसे दुःख नहीं होगा क्या ? तू बुद्धिमान है । तुझे विचार करना चाहिए कि पूर्वभव में किये हुए पाप के कारण तो तू देव और मनुष्य जैसी उत्तम गति से वंचित रह कर तिर्यंच की अशुभ गति पाया और अब भी पापकर्म करता रहेगा, तो भविष्य में तेरा क्या होगा ? सोच, समझ और दुष्कर्म का त्याग कर, अपने शेष जीवन को सुधार ले I यदि तुझे क्षुधा मिटाना है, तो दूसरा निर्दोष भोजन तुझे मिल सकता है । पित्ताग्नि का दूध से भी शमन होता है और मिश्री आदि से भी । इसलिए तुझे निर्दयता छोड़ कर अहिंसक वृत्ति अपनानी चाहिए" - - महाराजा मेघरथजी ने बाज को समझाते हुए कहा । सम्बोधन कर कहने लगा- 'महाराज ! आप विचार करें " -- बाज राजा को " जिस प्रकार यह कबूतर मृत्यु के भय से बचने के लिए आपके पास आया, उसी प्रकार मैं भी क्षुधा से पीड़ित हो कर इसे खाने के लिए आया हूँ । यदि में इसे नहीं खाऊँ, तो किसे खाऊँ ? अपने जीवन को कैसे बचाऊँ ? आप कबूतर की रक्षा करते हैं, तो मेरी भी रक्षा कीजिए । मुझे भूख से तड़पते हुए मरने से बचाइए । प्राणी जबतक भूखा रहता है, तबतक " ३४१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
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