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वह धर्म-पुण्य का विचार नहीं कर सकता । क्षुधा शांत होने पर ही धर्मकर्म का विचार होता है । इसलिए धर्माधर्म की बातें छोड़ कर मेरा भक्ष्य - यह कबूतर मुझे दीजिये। मैं क्षुधा मिटाने के बाद आपका धर्मोपदेश अवश्य सुनूँगा । आप एक की रक्षा करते हैं और दूसरे को भूख से मरने का उपदेश करते हैं, यह कैसा न्याय है ? यह कबूतर मेरा भक्ष्य है । मैं ताजा मांस ही खाता हूँ । इसीसे मेरी तृप्ति होती है । दूसरी कोई वस्तु मुझे रुचि - कर नहीं होती । इसलिए निवेदन है कि यह कबूतर मुझे सौंप कर मुझ पर उपकार कीजिए ।"
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तीर्थङ्कर चरित्र...
" क्या तू मांस ही खाता है ? दूसरा कुछ भी नहीं खा सकता ? यदि ऐसा ही है, तो ले, मैं तेरी इच्छा पूरी करने को तत्पर हूँ। मैं मेरे शरीर का ताजा मांस इस कबूतर के बराबर तुझे देता हूँ | तू अपनी इच्छा पूरी कर "-- महाराजा मेघरथजी ने धैर्य और शांतिपूर्वक कहा।
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बाज ने नरेश की बात स्वीकार कर ली । छुरी और तराजु मँगवाया । तराजु एक पल्ले में कपोत को बिठाया और महाराज स्वयं अपने शरीर का मांस काट कर दूसरे पल्ले में रखने लगे। यह देख कर राज्य-परिवार हाहाकार कर उठा । रानियाँ, राजकुमार आदि आक्रन्द करने लगे । मन्त्रीगण, सामन्त और मित्रगण नरेश से प्रार्थना करने लगे, - "हे प्रभो ! हे नाथ ! आप यह वया अनर्थ कर रहे हैं। आपका यह देवोपम शरीर, एक क्षुद्र प्राणी का ही रक्षक नहीं है, इससे तो सारी पृथ्वी का रक्षण होता है । आप इस एक के लिए अपने मूल्यवान् प्राणों को क्यों नष्ट कर रहे हैं ? सोचो प्रभु ! हम सब के दुःख को देखो। हम पर दया करो। हम भी आप से दया की भीख माँगते हैं । हमें आपके इस दुःसाहस से महान् दुःख हो रहा है ।"
नरेश ने शांत और गंभीर वाणी से कहा-
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'आत्मीयजनों! यह कबूतर मृत्युभय से भयभीत हो कर मेरी शरण में आया । मेरा आवश्यक कर्त्तव्य है । यद्यपि में इस बाज की कबूतर को बचा सकता य, किन्तु यह भी भूखा है यह केवल वैर या शत्रुता से ही इसे मारने के लिए मांसभक्षी है । इसे मांस चाहिए । यदि में कबूतर भूख को दूर करना भी आवश्यक है । यह मांस खाता । अब इसे भूख से तड़पने देना भी मुझे इष्ट
मैने इसे शरण दी । इसकी रक्षा करना उपेक्षा करके या बन्दी बना कर भी और अपना भोजन चाहता है । यदि आता, तो वह बात दूसरी थी । यह की रक्षा करना चाहता हूँ, तो इसकी के बिना दूसरी कोई वस्तु नहीं
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