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तीर्थङ्कर चरित्र
भोगने लगा। दत्त, प्रभंकरा का वियोग सहन नहीं कर सका। वह उसी के ध्यान में भटकता रहा । कालान्तर में उसे मुनिराज श्रीसुमनजी के दर्शन हुए। उन्होंने उसी दिन घातिकर्मों का क्षय कर के केवलज्ञान प्राप्त किया था। केवली भगवान् की धर्मदेशना सुन कर दत्त ने पत्नी-विरह से उत्पन्न मोह का त्याग किया और शुभ भावों से दान-धर्म करता हुआ काल कर के, जम्बूद्वीप के पूर्व-विदेह में स्वर्णतिलक नगर के नरेश महेन्द्र विक्रम के यहाँ पुत्रपने उत्पन्न हुआ । 'अजितसेन' उसका नाम दिया गया । यौवनवय में अनेक विद्याधर कन्याओं के साथ उसका लग्न हुआ। वह काम-भोग में काल व्यतीत करने लगा।
राजा विध्यदत्त के मरने पर राजकुमार 'नलिनकेतु' राजा हुआ। प्रभंकरा उसकी प्रिया थी ही । एक बार वे दोनों महल की छत पर चढ़ कर प्रकृति की शोभा देख रहे थे कि अचानक ही आकाश में बादल घिर आये । काली घटा छा गई । गर्जना होने लगी। बिजली चमकने लगी और थोड़ी ही देर में वह सारा ही दृश्य बिखर कर आकाश साफ हो गया । नलिनकेतु को इस दृश्य ने विचार में डाल दिया। उसने सोचा-“जिस प्रकार आकाश में यह मेघ-घटा उत्पन्न भी हो गई और थोड़ी देर में नष्ट भी हो गई, उसी प्रकार संसार में सभी पदार्थ अस्थिर हैं । मनुष्य एक जन्म में ही बचपन, युवावस्था, बुढ़ापा आदि विभिन्न अवस्थाएँ प्राप्त करता है। रोगी-निरोग, धनी-निर्धन और सुखी-दु:खी आदि विविध दशाएँ प्राप्त करता है । ऐसे क्षणस्थायी दृश्यों पर मुग्ध होना भूल है--बड़ी भारी भूल है।" इस प्रकार विचार करता हुआ वह विरक्त हो गया और पुत्र को राज्य दे कर क्षेमंकर तीर्थंकर के पास दीक्षित हो गया तथा उग्रतप करते हुए सभी कर्मों को नष्ट करके अव्यय पद को प्राप्त हुआ।
सरल एवं भद्र स्वभाव वाली रानी प्रभंकरा ने प्रवतिनी सती सुव्रता के पास चान्द्रायण तप किया। सम्यक्त्व रहित उस तप के प्रभाव से आयु पूर्ण होने पर वह तुम्हारी पुत्री के रूप में यह शांतिमति हुई । इनके पूर्वभव के पति दत्त का जीव यह अजितसेन है। पूर्वभव के स्नेह के कारण ही इसने इसे उठाई थी। वर्तमान की इस घटना के मूल में पूर्व का स्नेह रहा हुआ है। तुम्हें क्रोध त्याग कर बन्धु-भाव धारण करना चाहिए।
उपरोक्त वृत्तांत सुन कर उनका द्वेष दूर हुआ । ज्ञानबल से चक्रवर्ती नरेश ने कहा-"तुम तीनों तीर्थंकर भगवान् क्षेमंकरजी के पास प्रवजित होंगे। यह शांतिमति रत्नावली तप करेगी और अनशन कर के आयुपूर्ण होने पर ईशानेन्द्र बनेगी । तुम दोनों कर्म क्षय कर के मुक्ति प्राप्त करोगे । शांतिमति, ईशानेन्द्र का भव पूर्ण कर के मनुष्य भव
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