SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 342
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भ० शांतिनाथजी - पूर्वभव वर्णन - में भागता हुआ आया और चक्रवर्ती सम्राट से रक्षा एक सुन्दर युवती हाथ में ढाल और तलवार ले कर सम्राट से कहने लगी ३२९ करने की प्रार्थना की । उसके पीछे क्रोध में धमधमती हुई आई और "महाराज ! आप इस अधमाधम को यहाँ से निकालिये। में इस दुष्ट को इसके दुराचरण का मजा चखाने आई हूँ ।" वह आगे कुछ और कह रही थी कि यमदूत के समान एक भयंकर विद्याधर हाथ से गदा घुमाता हुआ आया और उसने सम्राट कहा; -- Jain Education International " महाराजाधिराज ! इस नीच की नीचता देखिये कि --मेरी यह पुत्री, मणिसागर पर्वत पर भगवती प्रज्ञप्ति विद्या साध रही थी । इस दुष्ट ने उसकी साधना में विघ्न डाला और उसे उस स्थान से उठा लिया । में उस समय विद्या की पूजा के लिए साम्रगी लेने गया था । पुत्री को विद्या सिद्ध हो गई थी । इसलिए यह कुछ अनिष्ट नहीं कर सका और भयभीत हो कर उसे वहीं छोड़ कर भाग गया। इसे अपनी रक्षा का अन्य कोई स्थान नहीं मिलने से यह आपकी शरण में आया है । इस दुष्ट से बदला लेने के लिए मेरी पुत्री इसके पीछे-पीछे आई । जब मैं पूजा की सामग्री ले कर साधनास्थल पर आया, तो वहाँ पुत्री दिखाई नहीं दी । अन्त में मैंने इनके चरण चिन्हों का अनुसरण किया और यहाँ तक आया । आप इसे निकाल दीजिये। मेरी यह गदा इसके मस्तक का चूर्ण बनाने के लिए तत्पर है । में शुक्ल नगर के शुक्लदत्त नरेश का 'पवनवेग' नाम का पुत्र हूँ। मेरा विवाह किन्नरगीत नगर के दीपचूल नरेश की पुत्री सुकान्ता से हुआ और उसकी कुक्षि से इस शांतिमति का जन्म हुआ ।" महाराज वज्रायुध ने पवनवेग का वृत्तांत सुन कर अवधिज्ञान का उपयोग लगाया और उसके पूर्वभव का वृत्तांत जान कर यों कहने लगे; " पवनवेग ! शान्त होओ और इस घटना के मूल कारण को देखो । जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र में विधयपुर नाम का नगर था । वहाँ विध्यदत्त नाम का राजा था । उसकी सुलक्षणा रानी से 'नलिनकेतु' नाम का पुत्र हुआ। उसी नगर में धर्ममित्र नाम का एक सार्थवाह था । उसके ' दत्त' नाम का पुत्र था। उस दत्त के 'प्रभंकरा' नाम की अत्यन्त रूपवाली पत्नी थी । एक बार बसंतऋतु में दत्त अपनी पत्नी के साथ उद्यान में क्रीड़ा कर रहा था । उसी उद्यान में राजकुमार नलिन केतु भी आया और प्रभंकरा को देखते ही मुग्ध हो गया । उसने दत्त को भुलावे में डाल कर प्रभंकरा का हरण कर लिया और उसके साथ स्वच्छन्द हो कर भोग For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001915
Book TitleTirthankar Charitra Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1976
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy