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भ० शांतिनाथजी-पूर्वभव वर्णन
प्राप्त करेगी और संयम तप को आराधना कर के मुक्त हो जायगी।"
चक्रवर्ती की बात सुन कर तीनों प्रतिबोध पाये और संसार का त्याग कर संयम स्वीकार किया। साध्वी शांतिमति, ईशानेन्द्र और मनुष्य-भव प्राप्त कर मोक्ष गई और क्षेमंकर तथा अजितसेन मुनि उसी भव में सिद्ध हो गए।
चक्रवर्ती सम्राट के पुत्र सहस्रायुध की रानी जयना ने गर्म धारण किया। गर्भ के प्रभाव से उसने स्वप्न में प्रकाशमान स्वर्ण-शक्ति देखी। पुत्र का जन्म होने पर कनकशक्ति' नाम दिया गया । यौवनवय प्राप्त होने पर सुमन्दिरपुर की राजकुमारी कनकमाला के साथ उसका लग्न हुआ।
श्रीसार नगर में अजितसेन राजा था । उसकी प्रियसेना रानी से वसंतसेना कुमारी का जन्म हुआ। यह कनकमाला की प्रिय सखी थी। उसका पिता उसके लिये किसी योग्य वर की खोज कर रहा था। किन्तु योग्य वर नहीं मिला। उसने पुत्री को कनकशक्ति के पास स्वयंवरा के रूप में भेजी और कनकशक्ति ने उसके साथ भी विधिपूर्वक लग्न किया। इस लग्न से वसंतसेना की बूआ के पुत्र को बड़ा आघात लगा । वह क्रोध से जल उठा ।
एक बार कनकशक्ति उद्यान में घूम रहा था कि उसने देखा--एक व्यक्ति मुर्गे की तरह उछलता गिरता-पड़ता भटक रहा था। उसने उसकी ऐसी दशा का कारण पूछा। उसने कहा- 'मैं विद्याधर हूँ। मैं कार्यवश अन्यत्र जा रहा था । यहाँ रमणीय उद्यान देख कर रुक गया । यहाँ कुछ समय रुक कर जाने लगा। मैने अपनी आकाशगामिनी विद्या का स्मरण किया, किन्तु बीच का एक पद मैं भूल गया। इससे में पूर्व की तरह उड़ नहीं सका और उछल कर नीचे गिर रहा हुँ।' राजकुमार ने कहा--"यदि आप मेरे समक्ष आपकी विद्या का उच्चारण करें, तो सम्भव है विस्मृत पद जोड़ने में मैं आपकी कुछ सहायता कर सकूँ।" विद्याधर ने विद्या का उच्चारण किया । राजकुमार ने अपनी पदानुसारिणी बुद्धि से भूले हुए पद को पूर्ण कर दिया। विद्याधर प्रसन्न हुआ और उसने राजकुमार को भी वह विद्या दी। दोनों अपने-अपने स्थान पर आये।
वसंतसेना की बूआ का पुत्र अपने क्रोध में ही जलता रहा । वह कनकशक्ति की कुछ भी हानि नहीं कर सका और मृत्यु पा कर देवलोक में गया ।
___एक बार कनकशक्ति अपनी दोनों रानियों के साथ विद्याधर से प्राप्त विद्या से गगन-विहार करता हुआ हिमवंत पर्वत पर आया। वहाँ विपुलमति नाम के चारणमुनि के दर्शन हुए । उपदेश सुन कर कनकशक्ति त्यागी बन गया। दोनों रानियें भी विमलमती
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