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भ० शांतिनाथजी -पूर्व भव वर्णन
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भगवान् ने धर्मदेशना दी । उपदेश पूर्ण होने पर राजकुमारी कनकश्री ने पूछा--"भगवन् ! मेरे निमित्त से मेरे पिताजी का वध और बन्धु-वर्ग का वियोग क्यों हुआ ? यह दुःखदायक घटना क्यों घटी ? इसका पूर्व और अदृश्य कारण क्या है ?"
केवलज्ञानी भगवंत ने फरमाया-- __ "शुभे ! घातकीखंड नामक द्वीप के पूर्व-भरत में शंखपुर नाम का एक समृद्ध गाँव था। उसमें 'श्रीदत्ता' नाम की एक गरीब स्त्री रहती थी। वह बहुत ही दीन, दरिद्र और अभाव पीड़ित थी और दिनभर परिश्रम और कठोर काम कर के कठिनाई से अपना जीवन चला रही थी । एक बार वह भटकती हुई देवगिरि पर्वत पर गई । एक वृक्ष की छाया में शिलाखंड पर बैठे हुए तपोधनी संत सत्ययश स्वामी दिखाई दिये। श्रीदत्ता ने तपस्वी संत को वंदना की और निकट बैठ कर निवेदन किया;--
__ "भगवंत ! मैं बड़ी दुर्भागिनी हूँ। मैने पूर्वभव में धर्म की आराधना नहीं की। इसी लिए मेरी यह दीन-हीन और अनेक प्रकार से दु:खदायक दशा हुई है। अब दया कर के मुझे कोई ऐसा उपाय बताइये कि जिससे फिर कभी ऐसी दुर्दशा नहीं हो।"
मुनिराज ने उसे 'धर्मचक्र' नाम का तप बताते हुए कहा कि-'देवगुरु की आराधना में लीन हो कर दो और तीन रात्रि के क्रम से सेंतीस उपवास करने पर तेरे वैसे पाप कर्मों का क्षय हो जायगा । जिससे तुझ भवान्तर में इस प्रकार की दुरवस्था नहीं देखनी पड़ेगी।"
श्रीदत्ता, मुनिराज के वचनों को मान्य कर के अपने स्थान पर आई और धर्मचक्र तप करने लगी। उसे पारणे में स्वादिष्ट भोजन मिला और धनवानों के घर में सरल काम तथा अधिक पारिश्रमिक तथा पारितोषिक मिलने लगा। श्रीदत्ता थोड़े ही दिमों में कुछ द्रव्य संचय कर सकी । अब उसका मन भी प्रसन्न रहने लगा । वह कुछ दानादि भी करने लगी । एक बार वायु के प्रकोप से उसके घर की भींत का कुछ भाग गिर गया और उसमें से धन निकल आया। उसकी प्रसन्नता का पार नहीं रहा । अब वह विशेषरूप के दानादि सुकृत्य करने लगी। तपस्या के अंतिम दिन वह सुपात्र दान के लिए किसी उत्तम पात्र की प्रतीक्षा करने लगी। अचानक उसने सुव्रत अनगार को देखा। वे मासखमण पारणे के लिए निकले थे। श्रीदत्ता ने भक्तिपूर्वक सुपात्रदान का लाभ लिया और धर्मोपदेश के लिए प्रार्थना की । मुनिराज ने कहा--"भिक्षा के लिये गए हुए मुनि, धर्मोपदेश नहीं देते। योग्य समय पर उपाश्रय में उपदेश सुन सकती हो ।' मुनिराज पधार गए और पारणा कर के स्वा
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