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भ० शांतिनाथ जी- युद्ध की घोषणा और विजय
नगरी का नरेश महाराज अनन्तवीर्य है।"
राजकुमारी दिग्मूढ़ हो गई। उसके मन में विस्मय, लज्जा, प्रमोद आदि कई प्रकार के भाव आ-जा रहे थे । क्षणभर बाद ही उसके हृदय में से अन्योन्य भाव निकल कर एकमात्र मोह--आसक्ति भाव स्थायी रह गया। अनन्तवीर्य भी उस रति रूपा राजकुमारी को निरख कर विशेष रूप से रोमांचित हो गया। राजकुमारी स्वस्थ हो कर कहने लगी।
"आर्य पुत्र ! यह नाटक भी अच्छा रहा। भाग्य के खेल विचित्र प्रकार के दृश्य उपस्थित कर के विचित्र परिणाम लाते हैं। किस प्रयोजन से नारदजी ने मेरे पिताजी के सामने आपकी दो चेटियों की प्रशंसा की और उन्हें प्राप्त करने की भावना उत्पन्न की। किस इच्छा से आप छद्म-वेश में यहाँ पधारे और अब क्या परिणाम आ रहा है। कदाचित् मेरे सद्भाग्य ने फल देने के लिए ही यह सारी परिस्थिति उत्पन्न की हो । अब आप शीघ्र ही मेरा पाणिग्रहण कर के मुझे कृतार्थ करें।"
"शुभे ! यदि तुम्हारी ऐसी ही इच्छा है, तो चलो । अपन अपनी राजधानी में चलें और अपने मनोरथ पूर्ण करें"--अनन्तवीर्य ने कहा। .. --"मैं तो समर्पित हो चुकी । अब आपकी जैसी आज्ञा होगी, वैसा करूँगी । में चलने को तय्यार हूँ। किन्तु मझे भय है कि कहीं मेरे पिताश्री, किसी प्रकार का अनर्थ खड़ा कर के आपका अहित करें। उनके पास अनेक प्रकार की विद्याएँ हैं, जिनके बल से वे जिस पर रुष्ट होते है, उसका अनिष्ट करते देर नहीं करते । यद्यपि आप समर्थ हैं, फिर भी एकाकी और शस्त्रास्त्र से रहित हैं। इसलिए भय लगता है "--राजकुमारी ने परिस्थिति का भान कराया ।
"भयभीत होने की बात नहीं है--प्रिये ! तुम्हारे पिता में चाहे जितनी शक्ति हो, वह हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ सकेगा। यदि उन्होंने युद्ध की स्थिति उत्पन्न की, तो इसका परिणाम उन्हें ही भोगना पड़ेगा । तुम निर्भय हो कर हमारे साथ चलो।"
युद्ध की घोषणा और विजय
राजकुमारी उनके साथ हो गई । वहाँ से प्रस्थान करते समय अनन्तवीर्य ने मेघगर्जना के स्वर में गम्भीर वाणी से कहा;
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